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December 12, 2024

तोपवालजी कहिन-कंचे खेलकर भी बन सकता है कोई करोड़पति, पढ़िए पूरी कथा

अक्सर तोपवालजी के पास किस्से और कहानियों की कोई कमी नहीं रहती है। काफी समय के बाद मेरी उनसे मुलाकात हुई। वो भी देहरादून में उत्तरांचल प्रेस क्लब में नई कार्यकारिणी के चुनाव के मौके पर। पता चला कि इस बार तोपवालजी भी कार्यकारिणी सदस्य के पद का चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने मुझे अपने समर्थन में वोट डालने के लिए नहीं कहा। कहते भी क्यों। क्योंकि उनका मेरा साथ तो इतना पुराना है कि वह जानते हैं कि मैं उन्हें वोट जरूर डालता। क्योंकि कार्यकारिणी में दस लोग मैदान में थे। इनमें से नौ को चुनना था। ऐसे में इस पद के लिए वोट डालने में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं थी। अब कहानी तो कंचे को लेकर है, लेकिन ये कहां की बात मैं उठा लाया। ऐसा पाठक सोच रहे होंगे। इसलिए पहले तोपवाल जी का परिचय दे देता हूं। (कहानी जारी, अगले पैरे में देखिए)

बालम सिंह तोपवाल देहरादून में तीस साल से ज्यादा समय से पत्रकारिता कर रहे हैं। देहरादून के रायपुर क्षेत्र में नथुवावाला में उनका आवास है। वह टिहरी बांध विस्थापित हैं। करीब 32 साल पहले जब मैं पत्रकारिता में नहीं आया, तब से मैं पत्रकारों में तोपवालजी को जानता था। कारण ये था कि मेरे बड़े भाई पत्रकार थे और अक्सर तोपवालजी हमारे घर भाई के साथ आते थे। मांजी और पिताजी से वह गढ़वाली में बात करते थे। फिर जब मैं पत्रकारिता में आया तो हमें एक साथ हिंदी हिमाचल टाइम्स, अमर उजाला और दैनिक जागरण में काम करने का मौका मिला। (कहानी जारी, अगले पैरे में देखिए)

तोपवालजी दूर दराज के गांवों में पहुंच जाते थे। वहां से बड़ी बड़ी घटनाओं की सूचना लेकर आते थे। कई बार हम भी उनके साथ ऐसे गांवों में गए, जहां जाने में ही हमें पापड़ बेलने पड़ गए। टिहरी बांध विस्थापित होने के कारण उनके मुआवजे की फाइल एक लिपिक ने रोक दी। वह फाइल को आगे बढ़ाने के लिए उस पर पहिया लगाने की बात करने लगा। फिर तोपवालजी और मैं सीबीआइ दफ्तर पर गए। वहां अधिकारियों से इसकी शिकायत की। फिर पूरी तैयारी के साथ तोपवालजी ने उस लिपिक को रिश्वत दी और उसे सीबीआइ ने रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया। (कहानी जारी, अगले पैरे में देखिए)

तोपवालजी के पास किस्से और कहानियों की कमी नहीं रहती है। वह मुझे किस्से सुनाते और फिर उन्हें ब्लाग के रूप में लिखने के लिए प्रेरित करते। प्रेस क्लब के चुनाव के दिन भी वह मुझे एक किस्सा सुनाने लगे। उन्होंने कहा कि आज गांव में खेती बाड़ी की जमीन समाप्त हो रही है। वहां खेतों के स्थान पर बड़े बड़े भवन खड़े हो रहे हैं। उनके गांव नथुवावाला की शक्ल और सूरत तक बदल गई। जिसकी गिनती गरीब में होती थी, वह जमीन बेचकर करोड़पति बन गया। उन्होंने खुद भी एक नया ट्रेक्टर लिया है। वह खेती बाड़ी को नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने कहा कि जमीन ही तो किसान के लिए सबकुछ है। उसे बेचकर कुछ दिन सुख तो जरूर मिल जाता है, लेकिन बाद में पछतावा होता है। फिर उन्होंने एक नया किस्सा सुनाना शुरू किया। बताया कि कंचे खेलकर एक व्यक्ति भी करोड़पति बन सकता है। मैने कहा वो कैसे तो तोपवालजी ने किस्सा सुनाया। यहां किस्से के पात्रों के नाम बदलकर दिए जा रहे हैं। (कहानी जारी, अगले पैरे में देखिए)

उन्होंने बताया कि गांव में गुरुदीन नाम के व्यक्ति के पास करीब पांच बीघा जमीन थी। किसी तरह खेतीबाड़ी करके काम चल रहा था। बात करीब 45 साल पुरानी है। गुरुदीन का बेटा काकू स्कूल जाने की बजाय दिन भर माता पिता की नजरों से छिपकर कंचे खेला करता था। कंचे जीतने पर वह उन्हें बेचता भी और शर्त लगाकर कंचे भी खेलता। उसे सब बच्चे कंचे का खिलाड़ी कहते थे। काकू को हारते हुए कभी किसी ने नहीं देखा। दूसरे बच्चों की जिद होती कि उसे हाराया जाए, ऐसे में सब उसके साथ कंचे जरूर खेलते थे। (कहानी जारी, अगले पैरे में देखिए)

इस बीच घर का खर्च नहीं चलने पर गुरुदीन ने बारीवालों से कर्ज लिया। बारी वालों से मतलब उस साहूकार से है, जो ब्याज पर पैसे देते थे। हर माह की पहली तारीख को ब्याज की राशि और कर्ज की वसूली के लिए उसके लठैत कर्जदार के दरवाजे पर खड़े हो जाते थे। गुरुदीन ने बारीवालों से साढ़े तीन सौ रुपये का कर्ज लिया। इसके लिए उसने अपनी जमीन के कागज गिरवी रख दिए। कुछ माह तो गुरुदीन ब्याज की रकम चुकाता रहा, लेकिन मूल रकम देने की उसकी स्थिति नहीं बन रही थी। ऐसे में बारीवाले उसे परेशान करने लगे। एक दिन तो कई लठैत घर पहुंचे। उन्होंने गुरुदीन से कहा कि जब कर्ज की राशि नहीं दे सकता तो वह जमीन को उनके नाम कर दे। अब मरता क्या ना करता। गुरुदीन तैयार हो गया। (कहानी जारी, अगले पैरे में देखिए)

इसके लिए कागजात तैयार किए गए। गुरुदीन इन कागजात पर अंगूठा लगाने ही वाला था, तभी काकू ने साढ़े तीन सौ रुपये पिता के हाथ रख दिए। कहा कि जमीन मत दो, उसका कर्ज चुका दो। काकू ने जो रकम दी, उसमे पांच, दस, बीस, पच्चीस पैसे, अट्ठनी, चव्वनी, एक रुपये आदि चिल्लर थे। साढ़े तीन सौ रुपये को गिनते हुए सबके पसीने निकल गए। खैर रकम साढ़े तीन सौ से ज्यादा ही निकली। गुरुदीन ने कर्ज चुकाया। फिर उसने काकू की क्लास लेनी शुरू की। उसने कहा कि तेरे पास इतनी रकम कहां से आई। क्या उसने चोरी की है। काकू मुसीबत में पड़ गया। (कहानी जारी, अगले पैरे में देखिए)

उसने सोचा कि सच बताऊंगा तब भी पिटाई होगी, नहीं बताऊंगा तब भी। क्योंकि तब कंचे खेलने बुरी आदतों में माना जाता था। फिर भी उसने सच की राह की पकड़ी और बताया कि कंचे खेलकर उसने इतनी रकम जमा की। गुरुदीन की आंखों में आंसू टपकने लगे। वह यही सोच रहा था कि बेटे ने कंचे खेलकर जुटाई राशि का उपयोग डूबते परिवार को बचाने के लिए किया। वो किसी गलत काम में भी रकम खर्च कर सकता था। तोपवालजी का कहना है कि जिस जमीन को बेटे ने बचाया, आज उस जमीन की कीमत करोड़ों रुपये में है।

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भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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