पढ़िए सोमवारी लाल सकलानी की कहानी-घुरकु का बाजा
शादी का जश्न था। खुशगवार मौसम। हंसी खुशी का माहौल। नर- नारियों से भरा पंडाल। प्रत्येक वस्तु मानो हंस रही हों। आने- जाने वाले मेहमानों का रेला लगा था। मंगसीर के महीने की पूर्वान्ह थी। बेदी के ऊपर दान- दहेज का सामान सुशोभित था। बाईं ओर लंबी-लंबी मेजें लगी थी । चमकीले कटोरा और डोंगों पर पकवान परोसे हुए थे। किसी पर पुलाव, किसी पर दाल, किसी पर सब्जी, तो किसी पर मटर- पनीर, बगल में छोटा सा बूथ जैसा था। जिस पर मिश्रित फल रखे थे। चाउमीन, रसगुल्ले ,कुल्फी, कॉपी आदि।
अधेड़ उम्र की नर नारियां थुल- थुले शरीर को लेकर लपकते जा रहे थे। युवा वर्ग के लोग बैंड की धुन के साथ नाच रहे थे। लड़कियां अनेक ढंग के बालों को मरोड़े अंग्रेजी डांस कर रही थी । पहाड़ी बारात थी, इसलिए ढोल दमऊ, रणसिंघा और मस्की बाजा भी लाया गया था। डीजे पर “तू चीज बड़ी है ; मस्त- मस्त” गीत बज रहा था।
रणबीर बहुत थका हुआ था। दूरदराज से विवाह उत्सव में शरीक होने आया था। भावुक किस्म का आदमी था। डोली विदाई के समय निकट था। उसने देखा एक शहरी युवती अपनी नन्ही बच्ची से कुछ बतिया रही थी ।अचानक बच्ची बोली ,”मम्मी काऊ”। रणबीर ने नजर उठाई देखा तो बछिया थी, जो शोरगुल से बिदक रही थी। “मम्मी काऊ गिर गई”। बच्ची ने उत्सुकता कहा। “यह काऊ बड़ी शैतान है”, मम्मी ने उत्तर दिया। मां बेटी के वार्तालाप के बीच रणवीर बोल उठा ,”मैडम गौ माता की बछिया है”। महिला ने घूर कर देखा तो रणबीर को पसीना निकल पड़ा। “गंवार कहीं का। कभी शहर भी देखा है ? चले आते हैं” ! महिला ने कहा।
रणवीर चुपचाप आगे खिसक गया। तभी उसके कानों में पींई की आवाज सुनाई दी। देखा तो अपना घुरकु है । मस्की बाजा बजा रहा था। पचास की उम्र होगी। आंखें गुफाएं बनी थी।चिपके गाल हवा से भरे हुए थे। कांध के नीचे , कांध के ऊपर मस्की बाजा था। बड़ी तन्मयता से मांगल गीत के बोल बजा रहा था।
घुरकु की उम्र तब पंद्रह साल की रही होगी जब उसके पिता गोबरू की मृत्यु हो गई थी। विरासत के रूप में मिला था- वह मस्की बाजा। सावन को छोड़कर हर महीने, पर्व, त्योहारों में घुरकु के बाजे की धुन सुनाई देती थी। उत्तम के ढोल की तरह ही घुरकु का बाजा भी मशहूर था। बाजा पर फूक भरते -भरते उसके फेफड़े बाहर निकल गए थे। पीट-पीट एक हो गए थे। सांस की बीमारी और कई रोगों का शिकार बन गया था। बाजा बजाते- बजाते पंद्रह से पचास वर्ष का हो गया था। गरीबी ने पिंड नहीं छोड़ा।
रणबीर और घुरकु गांव की पाठशाला में एक साथ पढ़ते थे। गरीबी की मार को झेलते हुए वह दर्जा तीन पास नहीं कर सका। सोचा, जब बाजा ही बजाना है तो, पढ़ने -लिखने से क्या फायदा ? दिन रात की मार, मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न, के कारण एक दिन घुरकु स्कूल को अलविदा कह दिया।
पिता की मृत्यु के बाद घर को का बाजे पर एकाधिकार हो गया। मंगसीर के महीने पैंयां के फूलों की सुषमा जब धरा को नैसर्गिक सौंदर्य से भर देती, लोग छनियों से गांव की तरफ आने लगते, तो शादी ब्याह का सीजन आ जाता। घुरकु भी अपने बाजे को सजाने में लग जाता था। उबड़- खाबड पहाड़ी रास्तों पर घुरकु के बाजे की जब सुर लय ताल सुनाई देती, तो समां बंध जाता था। घुरकु सूखे पाषाणों को भी पिघला देता था। दुल्हन के हृदय की टीस हृदय विदारक हो जाती थी। दुल्हन की मां बाप की करुणा उद्वेलित हो जाती थी।
वैशाख मास में जब बसंत ऋतु अपने यौवन पर होती थी तो घुरकु का बाजा भी भांति भांति के पुष्पों व पल्लवों की सुंदरता तथा सुगंध के साथ ,कर्णप्रिय संगीत बिखेरने लगता था। अनेक राग, अनेक लय और अनेक धुनों के साथ, टेढ़े- मेढ़े रास्तों सर्पिल मार्गों से संगीत का फव्वारा फूट पड़ता था। ऐसा जादू था घुरकु के बाजे में।
इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में जब सड़कें बन गई, गांव में भी शहरीकरण दिखाई देने लगा ,बड़े लोग पलायन कर गए। छोटे लोग भी अंधाधुंध नकल के शिकार हो गए। मस्की- बाजा, देसी- बैंड की बलि चढ़ गया। हां लोक कला प्रदर्शन के नाम पर, कुछ हस्तियां यदा-कदा शादी ब्याह में घुरकु को बुला देते थे। मजदूरी के साथ थोड़ा इनाम -किताब भी दे देते थे, लेकिन उसकी गरीबी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी। बच्चों की टोली । बीमार पत्नी। शारीरिक अस्वस्थता व मानसिक परेशानियों से घुरकु टूट गया ।
घुरकु का पुराना सहपाठियों रणवीर बीते साल नौकरी कर पेंशन में घर आ गया था। अच्छी स्थिति में था। बच्चे नौकरी लग गए थे। लड़कियों की शादी हो चुकी थी एक दिन चलता हुआ रणवीर घुरकु के खोला (मोहल्ला) में पहुंच गया। एक दुर्बल महिला दरवाजे पर सिर पकड़ कर बैठी हुई थी। रणबीर को देखकर बोली, “ठाकुरु तुम्हारी सिद्धि ? रणबीर ने उसकी तरफ देखा और बोला ,”बस यूं ही घूमता -फिरता आ गया,”घुरुक दिदा का घर कहां है “? वह मुस्कुराई । रणबीर पुरातन की स्मृतियों में खो गया। बूढ़ा घुरकु आवाज सुनकर बाहर आया। रणबीर को देखा तो फूले नहीं समाया। “महाराज आवा। यख मती बैठा”। फटी- पुरानी बोरी के ऊपर रणबीर को बैठने के लिए कहा। “महाराज दरी त नि छ”। एक पुरानी बोरी को हाथ में झाड़ते हुए उसने रणवीर की ओर बढ़ाते हुए, बैठने का इशारा किया।
रणबीर इंसान था। आज वह अपने पुराने साथी का मेहमान था। कितना आदर! कितना सम्मान ! कितना प्यार ! बैठने के लिए दरी नहीं ,खाने के लिए दाना नहीं, पहनने के लिए कपड़ा नहीं और रहने के लिए मकान नहीं है, लेकिन देने के लिए उस के पास सब कुछ है। प्यार, सत्कार, विनम्रता, संस्कार और सेवा ।
रणबीर उसकी श्रद्धा व प्रेम में पागल हो गया। चेतना लौटने पर बोला,”घुरकु दिदा, मस्क्की बाजू कख छ धर्यूं ? भैर निकाल।थोड़ा बजौ दिदा “। घुरकु बेजुबान बन गया। ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे किसी ने उसके प्राण हर लिए हों। दयनीय स्वर में बोला,” महाराज बाजू भी टूट गए। एक दिन उ शराबीन खींची और वह टूट गई। फिर नि बणैं सक्यू “। “खैर कोई बात नहीं है दिदा । तुम्हारा बाजा मैं बनवा दूंगा,” रणवीर ने कहा। फिर कुछ देर उनकी बातचीत चलती रही। दोपहर होते ही रणवीर घर आ गया। उसको घुरकु के बाजे को बनवाने की चिंता सताए जा रही थी। भोजन करने के बाद वह लेट गया। मन में घुरकु के बाजे की ही चिंता खाए जा रही थी। उसे नींद आ गई । तभी किसी ने आवाज लगाई ,”बाजा तो बन जाएगा लेकिन तब तक बजाने वाला ही इस दुनिया में नहीं रहेगा “।
हड़बड़ाहट में रणवीर की नींद टूट गई। वह विचलित हो गया। फिर सोचा, “कोई बात नहीं। घुरकु का बाजा बनकर रहेगा। कोई न कोई घुरकु तो अवश्य पैदा होगा जो उसे बजाएगा। अन्यथा सेना के बैंड की धुन के साथ तो वह स्वर लय ताल अवश्य सुनाई देगी ! बाजा अमर है कलाकार तो मर जाते हैं लेकिन कला सदैव जीवित रहती है”।
लेखक का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी ,निशांत ।
सुमन कॉलोनी ,चंबा; टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।