साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी की कविता- पर्यावरण की रक्षा खातिर

पर्यावरण की रक्षा खातिर
ऐ तथाकथित विकासवादियों ! मां का सीना मत चीरो।
भोग बिलास लिप्सा खातिर ,जख्म धरा पर नहींकरो।
यदि विकास ही करना हीहै,जनसंख्या कन्ट्रोलकरो।
समान विश्व ब्यापक प्रणाली,भारत में भी शुरू करो।
ऐ धन्ना सेठों, धनबलियों, तुम ऐंठन में नहीं रहो !
बरना फ़िर पछताओगे तुम ! दोष विधाता नहीं धरो।
जल जंगल जमीन बचाओ ,अतिक्रमणवादी नहीं बनो !
सत्ता मद में चूर साथियों ! कुछ तो अब लिहाज करो।
जल- स्रोत सूख रहें हैं , नदियां भी पाताल गयीं।
वन पर्वत खल्वाट हो रहे, कंकरीटों के महल खड़े।
गिर जाएंगे महल एक दिन, दुर्ग- किले ढ़ह जाएंगे।
पूछेगी धरती ताकत को, जब सब खाक हो जाएगा।
अभी समय है ,सम्भल जाइये ,नियोजित सब काम करो।
जल-जंगल- जमीन बचा कर ,पीढ़ी का भी उद्धार करो।
जल जागर का यही है कहना ,कुदरत की कुछ लाज रखो।
पर्यावरण की रक्षा खातिर ,मिलकर सब कुछ प्रयास करो।
कवि का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत ।
सुमन कॉलोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।