‘ही’ और ‘शी’ का बेतरतीब संसार, नाममात्र की आजादी है स्त्री को

सिर्फ कहने मात्र की आजादी है आज भी एक स्त्री को। उसे आज भी उन्हीं बेड़ियों में बांधकर मजबूर बनाया जा रहा है जो आज के कुछ सदियों पहले थी। कहने मात्र के लिए उसकी इच्छा सुनी जाती है, उसकी ख्वाहिशों को पूछा जाता है, उसे सिर्फ एक दिन खुश करने के लिए उसकी हाँ में हाँ मिला दी जाती है। लेकिन अंततः ना उसकी ख्वाहिशें पूरी करने के लिए विस्तृत आकाश दिया जाता है, ना उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाली बात पर गौर किया जाता है।
बचपन को ये कहकर निकाल देते हैं कि तू लड़की है, ससुराल जाना है थोड़े घर के तौर तरीके सीखा कर। अपने भाई के हमेशा साथ रहा कर। जवान हुई तो आस पड़ोस के मर्दों की कहीं नजर ना पड़ जाए बाहर मत निकला कर। निकल भी गई बेचारी थोड़ी हिम्मत करके तो घरवालों के शक को हकीकत में बदलने वाले दरिंदे तो बैठे रहते ही हैं।
ना जी पाती है ना मर पाती है,
लड़की बेचारी सच में घुट घुट कर मर जाती है।
फिर उसका वक्त बुरा होगा या अच्छा, अपने सपनों को अलविदा कर वो पहुंचती है ससुराल। जिसका पता नहीं कि उसे आजादी दे पाएगा या नहीं।
एक व्यंग्य के रूप में कविता आप सबके सामने:-
“ही” की भीड़ में “शी” कितनी ही बार कुचली जाती रही है,
मगर “ही” का “सी” इतना विस्तृत है कि “शी” कहाँ गुम हो जाती है,
पता ही नहीं लगता।
“ही” ने हमेशा चाहा
अपने लिए खाने की टेबल लगवाना,
सुबह पानी गर्म करवाना,
नाश्ता पसंद का बनवाना,
कपड़ों पर स्त्री अच्छे से करवाना,
अपना वो टूटा सा स्कूटर धुलवाना,
फिर ऑफिस में भी हर “शी” को सताने की कोशिश करना,
शाम को आते है इस हाड़ कँपाने वाली सर्दी में भी पानी गर्म करने को उठाना,
फिर भी मन न भरे तो बिना बात के डाँट लगाना,
हमेशा चाहा पैर दबवाना,
और फिर बिना मतलब चिड़कर सो जाना।
हाँ, ये सब तो कई बार “ही” भी सुनाता आया है
लेकिन उसका “जी” तो राजी बाहर निकलने पे हो ही जाता है।
बलि की बकरी तो बेचारी “शी” बनती ही आई है ना।
सभी के लिए प्यार की थाली तो उसी ने सजाई है ना।
दुत्कार, फटकार, हर तरह का अत्याचार,
हमेशा बनती रही सिर्फ “शी” ही लाचार।
सौ में से दो “शी” “ही” के साथ कदम मिलाकर चल लेती है,
और कह देती है अब तो समाज समानता दे रहा है ना,
“ही” और “शी” में भेद खत्म हो रहा है ना।
शायद उन्होंने “सी” में गोता लगाया नहीं,
गाँवों में जाकर, मद्यमवर्गीय परिवारों वाले समाज में जाकर,
बस खुद को सोशल मीडिया, रहने के ढंग बदलने की इजाजत मिल जाने से
वो “सी” कहाँ अपना ज्वार रोक पाया है।
पोषण तो मिला है लेकिन वृक्ष को दुनिया के सामने सुंदर दिखाने के हिसाब से,
उसका तना खोखला है, जड़ें कमजोर है,
लेकिन दुनिया सिर्फ उसकी कृत्रिम सजावट, हरियाली को देख पा रही है।
अभी भी “ही” और “शी” का स्तर बराबर नहीं है,
एक बड़ा अंतराल है सोच और नजरिये का।
कवि का परिचय
नेमीचंद मावरी “निमय”
हिंदी साहित्य समिति सदस्य,
बूंदी, राजस्थान
नेमीचंद मावरी “निमय” युवा कवि, लेखक व रसायनज्ञ हैं। उन्होंने “काव्य के फूल-2013”, “अनुरागिनी-एक प्रेमकाव्य-2020” को लेखनबद्ध किया है। स्वप्नमंजरी- 2020 साझा काव्य संग्रह का कुशल संपादन भी किया है। लेखक ने बूंदी व जयपुर में रहकर निरंतर साहित्य में योगदान दिया है। पत्रिका स्तंभ, लेख, हाइकु, ग़ज़ल, मुक्त छंद, छंद बद्ध, मुक्तक, शायरी , उपन्यास व कहानी विधा में अपनी लेखनी का परिचय दिया है।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।