ये साधु नहीं स्वादु हैं, बदल रहा है इनका ट्रेंड, संत बाबा बन रहे हैं सन्यासी नेता
योगी नहीं ये तो भोगी हैं। साधु नहीं ये तो स्वादु हैं। जिनका काम दूसरों को नसीहत देना है, लेकिन वे खुद की फजीहत करा रहे हैं। क्या यही चरित्र रह गया हमारे देश के बाबाओं का। पहले किसी नेता के गिरफ्तार होने की सूचना से पूरे देश में सनसनी फैल जाती थी।
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बचपन में प्रवचन के नाम पर मैं मंदिर या फिर मोहल्ले मे पंडितजी के मुख से उवाची गई सत्यनारायण की कथा ही सुनता रहा। तब बाबा उसी को कहते थे, जो भगवा कपड़ों में रहते थे। सिर पर जटा होती थी और गली-गली घूमकर भीख मांगा करते थे। समय बदला और बाबाओं का ट्रेंड बदला। पैदल घूमने की बजाय उनके पास लक्जरी कारें आ गई। घर-घर जाने की बजाय उन्होंने अपनी दुकानें खोल ली। भीख मांगने की बजाय आश्रम रूपी दुकान चलाने के लिए चंदा लेना शुरू कर दिया। अब बाबा गरीब के द्वार भीख मागने नहीं जाते, बल्कि गरीब का तो उनसे संपर्क ही नहीं रहा। जिसकी जेब में जितना पैसा है, वही बाबा का परम भक्त है। उसी का भला करने का वे ठेका लेते हैं। गरीब की सेवा तो य़े कैसे करते हैं, इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे।
एक बार एक नामी बाबा के पास गरीब महिला आती है। वह बाबा से मिलती है और रोते हुए अपनी व्यथा सुनाती है। उसका इस दुनियां में कोई नहीं होता। उसने कुछ नहीं खाया और उसका पेट खाली है। बाबा को उस पर तरस आया और झट दे दिया आशीर्वाद। कुछ दिनों बाद वह महिला फिर से बाबा से मिलती है और रोने लगती है। बाबा कहते हैं अब क्या चाहिए तूझे बच्चा। मैने तूझे आश्रम में काम दिया। रहने को घर दिया। तेरा पेट खाली था, उसे भी भर दिया। हे मानव सब्र करना सीख। अब तू जा मैं कुछ और नहीं कर सकता। बेचारी अबला आश्रम छोड़कर जाने लगती है। जैसे वह पहले थी, वैसी ही गरीब व लाचार है। सिर्फ अंतर यह आया कि उसका पेट खाली नहीं रहा। उसमें बाबा के आशीर्वाद का करीब छह माह का गर्भ पल रहा था। ऐसी ही होती हैं पाखंडी बाबाओं की कहानी।
काम, क्रोध, लोभ ही इंसान को कहीं का नहीं छोड़ते। इससे दूर रहकर ही इंसान का भला हो सकता है। ये भी मैं और अन्य लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं। फिर इन्हीं बातों को दोबारा सुनने के लिए क्यों हमें बाबाओं के पंडाल में जाना पड़ रहा है। ये आदतें तो हमें सुनकर नहीं, बल्कि व्यवहार में उतारनी चाहिए। वर्ष 94 में ऋषिकेश में एक सफेद दाढ़ी वावे बाबा भागवत पर प्रवचन कर रहे थे। मुझे समाचार पत्र के लिए प्रवचन की कवरेज करनी पड़ती थी। पहले दिन जब मैं प्रवचन सुनने गया तो बाबा के भक्तों ने बैठने को भी नहीं पूछा। सो मैने समाचार में एक लाइन में इसका जिक्र भी कर दिया।
इसका असर भी अगले दिन देखने को मिला। मुझे सबसे आगे जमीन पर स्थान दिया गया। जमीन पर बैठना मुझे इसलिए अखर रहा था कि मैं बाबा को अपना भगवान नहीं मानता और न ही गुरु। फिर मैं भी उसकी तरह क्यों न आसन पर बैठूं। खैर समाचार पत्र में नौकरी करनी थी, तो परिस्थिति से समझोता करना पड़ा। बाबा गाना गाने लगे। मैने नोट किया कि जब भी वह गाना गाते तो अपने दायें हाथ की तरफ एक कोने में जरूर देखकर मुस्कराते। कनखियों ने मैने भी उस और देखा, तो जो कुछ नजारा समझ आया, तब मुझे वह वहम लगा। भक्तों की भीड़ को बाबा के दायीं तरफ यह नहीं दिखता था कि वहां क्या है। मुझे आगे बैठने की वजह से दिख रहा था।
वहां एक विदेशी सुंदरी (या बंदरी) बैठी थी। जिससे बार बाबा नैन मिला रहे थे। तब का यह वहम आज मेरे विश्वास में बदल गया। तब बाबा यही प्रवचन कर रहे थे कि काम मानव को कहीं का नहीं छोड़ता है। इससे इंसान का पतन निश्चित है। तब सही कहा था बाबा ने। बाद में वे खुद फंसे और उस सफेद दाढ़ी वाले बाबा को सितंबर 13 में पुलिस ने बलात्कार के आरोप में इंदौर से गिरफ्तार किया। तब से वे जेल में हैं।
अगले दिन बाबा क्रोध पर प्रवचन दे रहे थे। प्रवचन के दौरान माइक ने काम करना बंद कर दिया। इस पर सेवादार तकनीकी दिक्कत को तलाशने में जुट गए। बाबा ताली बजाने लगे और भक्ततों के साथ- जयश्रीराम बोलो-जय सियाराम गुनगुनाने लगे। कितनी सहनशीलता थी बाबा में। यही में देख रहा था। तभी बिजली भी चली गई। बाबा पसीने से तरबतर हो गए। कूलर बंद हो चुके थे। बाबा के सब्र का बांध टूटा। उन्होंने गुजराती बोली में ही सेवादारों को हड़काना शुरू किया। बाबाजी को क्रोध भी आता है मुझे उस दिन ही पता चला।
सात दिन चलने के बाद प्रवचन समाप्त हो गए, लेकिन बाबा के चेले उस आश्रम में ही डटे रहे, जिसमें प्रवचन चल रहे थे। पता चला कि अब आश्रम के महंत से पैसों के लेन-देन का विवाद हो गया। यह विवाद निपटा तो बाबा के सेवादारों ने ऋषिकेश से दस किलोमीटर दूर ब्रहमपुरी में एक आश्रम पर ही कब्जा कर लिया। विवाद बढ़ने पर वहां पुलिस भी गई और समाचार पत्रों में यह समाचार सुर्खियों में भी रहा। तब पता चला कि ये बाबा तो लोभी भी हैं। राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। बाद में पछताएगा जब टेम जाएगा छूट। कुछ इसी सिद्धांत पर चल रहे थे बाबाजी।
अब किसी बाबा की गिरफ्तारी का समाचार सुनने पर मुझे कोई अचरज नहीं हुआ। क्योंकि बाबाओं का तो प्रवचन का ट्रेंड भी बदल गया है। अब उनकी जुबान सिर्फ नफरत उगलती है। करीब दस साल से ही बाबाओं के महिलाओं से संबंध की ज्यादा खबरें आने लगी हैं। निश्छळ बाबा निश्छल नहीं रहे और उनकी महिलाओं के साथ वीडियो क्लिप सार्वजनिक तक हो गई थी। चरित्र के मामले में ये बाबा तो नेताओं से भी टक्कर लेने लगे। तभी तो आम धारणा बनती जा रही है कि ये योगी नहीं भोगी हैं, साधु नहीं स्वादु हैं। ऐसे स्वादु को गलती करने में भी जब सजा का नंबर आता है तो क्यों उन्हें वीआइपी ट्रीटमेंट दिया जाता है। क्यों उन्हें गिरफ्तार कर कार व हवाई जहाज से ले जाया जाता है। उन्हें आम बलात्कारी की तरह क्यों नहीं पुलिस ले जाती।
अब सवाल ये उठता है कि यदि बाबा वाकई भगवान होते तो उनके चेलों पर भी प्रवचन का असर पड़ता। वे मीडिया पर हमला नहीं करते और क्रोध को काबू करने की कला का प्रयोग करते साथ ही संयम बरतते। बाबाओं का ट्रेंड बदला और संत बाबा से संन्यासी नेता में बदलने लगे हैं। इन्हें तो सिर्फ नरफती प्रवचन से ही मतलब है। खुद अविवाहित रहे, दूसरों को मारने काटने की बात करते हैं। यदि इनकी औलादें होती तो क्या वे उनके हाथों में हथियार पकड़ाते, जैसा समाज में लोगों से उम्मीद करते हैं। इस सबके बावजूद यह भी सच है कि लगातार गलतियां करने वाले का जब पाप का घड़ा भरता है तो हंडिया चौराहे पर ही फूटती है।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।