पढ़िए साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी की दो कविताएं
भूख और गरीबी।
शरीर और मन का ऩाश करती हैं
तिल-तिल कर मरने को मजबूर करती हैं।
भूल जाता है प्राणी जीवन का महत्व।
प्रकृति का उद्दीपन दृष्य आंखों में भर जाते हैं।
भूख और गरीबी ।
एक साथ जीवन को यातनाओं से संताते हैं।
निष्ठुर जगत में जीवन को पीड़ा पहुंचाते हैं।
आस्था खत्म हो जाती है।
भय और आतंक मन में भर आते हैं।
भूख और गरीबी
क्या कभी करीब से देखी है ?
फिर क्यों हवा में उछलते हो ?
हवा सब निकल जाएगी एक दिन।
तब न भूख रहेगी ,न गरीबी।
ढलती दुपहरी की छाँव
ढ़लती दुपहरी की छाँव
शीत समीरयुक्त प्रवाह
पतझड़ के विटप कृश गात
जमती धरती का कटु हास।
अन्तश्चेतना का बढ़ता ह्रास
पतनोन्मुख जीवन की आस
टूटती श्रृंखलाओं की सांस
कर रही हैं जीवन का उपहास।
मेखलाओं के सदृश्य शरीर
शीत ज्वर से कंपित समीर
यौवन का झरता उन्माद
बढ़ रहा है सरिता के तीर।
कवि का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत ।
सुमन कॉलोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।