पढ़िए दीनदयाल बन्दूणी की गढ़वाली रचना-कुटमदरि
” कुटमदरि “
रऴि – मिऴि , रावा त,
नांगि-कांगि , बंटे जयंद.
दगड़म हो , सयंणु दिल-
बोल्यूं बि , सये जयंद..
कुटमदरिम, रैंण-खांणकु,
रखण पोड़द , बड़ु दिल.
उनबि , जीति – जिंदगी –
ज्यू-माफिक , कख मिल..
रोज़ा क्वी , भलि आदत,
कुटमदरि तैं , उठै जांद.
रोज़ा क्वी , बुरु ब्यसन-
कुटमदरि तैं , डुबै जांद..
छ्वटि-छ्वटि , छ्वीं-बात,
निभांद दगड़ु , जन्मजात.
जैं- कैंम , बोलीं बात की-
रखड़ पोड़द , इजमात..
एका सैर , हैंकु तरि जांद,
हैंका भोऱ , हैंकु बड़ि जांद.
क्वी ल्यांद , क्वी द्यांद-
क्वी कमांद , क्वी खांद..
‘दीन’ कुटमदरि , यींच खेल,
खेल – खेलम , सकि जांद.
कुटमदरि दगड़म समजदरि-
यांसे पक्कि न्यूं , पड़ि जांद..
कवि का परिचय
नाम .. दीनदयाल बन्दूणी ‘दीन
गाँव.. माला भैंसोड़ा, पट्टी सावली, जोगीमढ़ी, पौड़ी गढ़वाल।
वर्तमान निवास-शशिगार्डन, मयूर बिहार, दिल्ली।
दिल्ली सरकार की नौकरी से वर्ष 2016 में हुए सेवानिवृत।
साहित्य
सन् 1973 से कविता लेखन। कई कविता संग्रह प्रकाशित।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।