दृष्टिबाधितार्थ दिव्यांग डॉ. सुभाष रुपेला की कविता-कड़वा टीचर
कड़वा टीचर
सही है मैं हूँ टीचर, मेरी चिल्लाहट नहीं जाती।
ग़लत हरकत कहीं भी देख, गुर्राहट नहीं जाती।।
कहीं बनियाँ नज़र आता रहा है लूट ग्राहक को।
लगा नारे करा कम दाम खुजलाहट नहीं जाती।।
क्या घर क्या क्लास आदत, एक-सी हो ही गई मेरी।
ज़रा-सा शोर सुनते ही, ये झल्लाहट नहीं जाती।।
रही चुपचाप सुनती क्लास, मेरी बात को हर दम।
सुनी घर की आनाकानी, तो घबराहट नहीं जाती।।
मधुर मैं गीत गाता हूँ, सभा में धूम मचती है।
समाँ रंगीन होने पर, सही आहट नहीं जाती।।
टीचर को टोकना पड़ता है, आख़िर काम उसका है।
टीचर को देख दुनिया राह से क्यों हट नहीं जाती।।
जमा है गंद मन में जिस्म में तो साफ़ करना है।
कहीं भी गर्म पानी बिन, वो चिकनाहट नहीं जाती।।
ग़लत पर डाँटना पड़ता है, सो आवाज़ कड़वी है।
दवाई-सा भला करती, ये कड़वाहट नहीं जाती।।
बाहर कड़वा मीठा अंदर, टीचर तो नारियल-सा है।
बुराई देखने पर उसकी, भन्नाहट नहीं जाती।।
बहुत है फ़र्क रिश्तों में, निकटता और दूरी का।
निकटता बिन कभी परखी, ये गरमाहट नहीं जाती।।
रुपेला टीचरी है काम, भारी जिम्मेदारी का।
कसे बिन तार वीणा की, वो भर्राहट नहीं जाती।।
कवि का परिचय
डॉ. सुभाष रुपेला
रोहिणी, दिल्ली
एसोसिएट प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय
जाकिर हुसैन कालेज दिल्ली (सांध्य)
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।