एक युग दृष्टा कवि के जाने का दर्द, मंगलेश डबराल के निधन पर-स्मृति शेष
कविता दिन-भर थकान जैसी थी और रात में नींद की तरह/ सुबह पूछती हुई, क्या तुमने खाना खाया रात को। कुछ ही तरीखें हैं जो निर्जन रहती हैं, पुराने मकानों की तरह, उदास काली खोखली तारीखें, जिनमें शेष नहीं है ताकत ! (मंगलेश डबराल)। हिंदी साहित्य जगत के नक्षत्र, मूर्धन्य साहित्यकार, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, कवि मंगलेश डबराल जी का जाना साहित्य जगत के एक युग का अंत है । गढ़वाल की उपत्यकाओं में समय-समय पर अनेक साहित्यिक विभूतियों ने जन्म लिया, जिन्होंने न केवल अपने क्षेत्र विशेष और देश में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कीर्तिमान स्थापित किए। अपनी भाषा – बोली, साहित्य तथा संस्कृति का प्रसार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किया। उन्हें महान विभूतियों में मंगलेश डबराल एक हैं।
स्व. मंगलेश डबराल जी से मेरी अंतिम मुलाकात 13 सितंबर सन 2013 को हल्द्वानी स्थित एमबी कॉलेज में कवि सम्मेलन में हुई थी। डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल हिंदी एकेडमी के तत्वाधान में आयोजित कार्यक्रम में मैं सम्मिलित हुआ था। हल्द्वानी के क्लार्क होटल में दो-तीन घंटे डबराल जी के साथ बातचीत हुई और अनेकों साहित्यिक पहलुओं पर चर्चा हुई थी। वह एक चिर स्मरणीय समय थे। कवि सम्मेलन में देश के प्रतिष्ठित 20 कवि सम्मिलित हुए थे, जिनमें मंगलेश डबराल जी की कविता का वाचन सबसे पहले हुआ था।
यूं तो स्व. डबराल के बारे में दशकों से पढता , सुनता और देखता आया हूं, लेकिन अपने क्षेत्र के आंचलिक कवि होने के नाते, सदैव उन्हें प्रेरणास्रोत भी स्वीकारता रहा हूं। स्वर्गीय डबराल मन, वचन और वाणी से सौम्यता की प्रतिमूर्ति थे । यद्यपि उनके मन में क्रांति और परिवर्तन की ज्वाला प्रज्वलित रहती थी। “पहाड़ पर लालटेन” का जो भाव मैंने समझा कि आधुनिक युग में भी आजादी के बाद पहाड़ पर प्रकाश/नियोजित विकास की पहुंच नहीं है । जो समुचित विकास पहाड़ का होना चाहिए था, वह अभी कोसों दूर है। जिसके लिए कवि ने अपनी काव्य कृति के द्वारा ऐसे आसेवित क्षेत्र को एक नई दिशा दी और आज उनके गांव काफलपानी में बिजली, पानी, विद्यालय जैसी मूलभूत सुविधाएं हैं उपलब्ध है । कमोबेश इसका श्रेय मंगलेश डबराल जी की कविताओं को भी जाता है।
एक प्रयोगवादी कवि के रूप में मंगलेश डबराल जी जाने जाते रहे हैं। बहत्तर वर्ष की उम्र जीने के बाद जैसे की नियति को मंजूर था, कवि अपने पीछे एक लंबी दास्तान को छोड़ गए हैं। कई वर्षों पूर्व मैं महेंद्र राजकीय इंटर कॉलेज काफलपानी में बोर्ड परीक्षा में कस्टोडियन के रूप में नियुक्त था। एक महीने के इस प्रवास में मंगलेश डबराल जी की जन्मस्थली को देखने और समझने का पर्याप्त समय था। उनका यह जन्म स्थान मेरे लिए बद्रीनाथ से भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि मेरे कर्म क्षेत्र का यह सबसे निकटवर्ती स्थान रहा जो, मुझे साहित्यिक प्रेरणा देता रहा है। कुछ वर्षों पूर्व मैंने अपने एक लेख में “ताकि पहाड़ पर लालटेन के रोशनी अमर रहे” में इस पावन माटी के बारे में लिखा था। विद्यालय की स्मारिका यह प्रकाशित हुई थी ।
डबराल की प्रारंभिक शिक्षा टिहरी गढ़वाल में हुई। स्नातक उपाधि ग्रहण करने के पश्चात पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने कदम बढ़ाया । साहित्य के प्रति उनकी अभिरुचि बाल्यकाल से रही है। कविता के अतिरिक्त उन्होंने अनेक कहानियां और समीक्षाएं भी लिखी जो कि समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रही है। यद्यपि मुख्य रूप से वह पत्रकारिता से जुड़े रहे और देश के अनेक नगरों से निकलने वाली पत्र -पत्रिकाओं का सफल संपादन भी कर चुके थे। उनकी अमर कृति- “पहाड़ पर लालटेन “एक कालजई रचना है जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की उन्हें पहचान दिलाती है।
दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर/ एक तेज आंख की तरह टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई/ देखो अपनी गिरवी रखे हुए खेत, बिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहने/ देखो भूख से, बाढ़ से, महामारी से मरे हुए/ सारे लोग उभर आए हैं चट्टानों से / दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ झाड़ कर/ अपनी भूख को देखो /जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है”।
स्वर्गीय मंगलेश डबराल यदि फिर नई कविता के कवि थे किंतु अपने आंचल और अपने परिवेश को वह वह से बाहर जाने पर भी नहीं भुला पाए नया कभी क्षेत्र विशेष से दूर शहर में जाकर उनके बाय आवरण को देख जरूर पाया है लेकिन भेज नहीं पाया स्वर्गीय डबराल को नई कविता के युग का आंचलिक कभी कहे तो अनुचित नहीं होगा।
यथा –
“पहाड़ पर चढ़ते हुए तुम्हारी सांस फूल जाती है।
आवाज भर्राने लगती है, तुम्हारा कद भी घिसने लगता है।
पहाड़ तब भी है, जब तुम नहीं हो”।
डबराल की कविताएं उदेश्यहीन और अनन्त में नहीं भटकती, बल्कि किसी लक्ष्य को साथ लिए हुए, युग के साथ सामंजस्य स्थापित करती हैं। पहाड़ पर लालटेन इसका एक उदाहरण है। स्वर्गीय डबराल एक उदात्त भावना के कवि थे। जिनकी मानवीय मूल प्रवृत्ति सदा मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी रही। भूख और निर्धनता कवि के लिए कोई व्यक्तिगत या दैहिक मूल्य नहीं रखती थी, बल्कि कवि की भूख विस्तृत और व्यापक है। उन्होंने अपनी कविताओं में लिखा,” वह हर जगह दिखती थी गुर्राती हुई/ मांगती हुई एक इच्छा का रक्त”। या ” बर्फ गिर रही है चारों ओर आदि, अंतहीन / रास्ते बंद हो रहे हैं /उस पर कोई चीखता है ,बर्फ पर उसकी आवाज फैलती है/ जैसे खून की लकीर”।
स्वर्गीय मंगलेश डबराल ,गढ़वाल अंचल में काव्य जागृति की किरणों से प्रकाशित नक्षत्रों की श्रेणी में आते हैं। उनकी काव्य शैली नई कविता के लिए अनुकरणीय है। उनकी आंचलिक कविताएं, देश काल और परिस्थितियों के अनुसार प्रतिनिधि कविताएं बन चुकी हैं। साहित्य सृजन की युगीन प्रवृत्तियों से लेकर ,उन्हें अपने भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना, किसी घिसी- पिटी लीक पर चलने के वह अभ्यस्त नहीं थे। वह एक सजग दृष्टा कवि थे। उनके पास साहित्य जगत में कुछ नया करने की सोच थी। “पहाड़ पर लालटेन” कविता संग्रह उसी का एक उदाहरण है।
एक बार अपने प्रिय दृष्टा कभी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनकी कविता की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए, “परछाई उतनी ही जीवित है, जितने तुम।
तुम्हारे आगे- पीछे या तुम्हारे भीतर छिपी हुई,
या वहां जहां से तुम चले गए हो।”
पढ़ने के लिए यहां क्लिक करेंः हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर मंगलेश डबराल को उनकी रचना के साथ श्रद्धांजलि, आवाज अनिल दत्त शर्मा
लेखक का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत ।
सुमन कॉलोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।