घरेलू महिलाओं के लिए चुनौती भरा रहा है कोरोना काल
पिछले दिनों सोशल मीडिया में कोरोना वारियर्स के सर्टिफिकेट मिलने कि बाढ़ आ रखी थी और इन सर्टिफिकेट को बाटने वाले गैर सरकारी संगठन और सरकारी संगठन के लोग अपने अपने तरीके से बांटने में लगे थे। यहां तक कि कई लोग इस सर्टिफिकेट को पाकर ऐसे महसूस कर रहे थे जैसे उनको कोई गोल्ड मेडल मिल गया है। महसूस होना भी चाहिए क्योंकि सम्मान तो सम्मान है। पुलिस कर्मी, डॉक्टर्स और अन्य कर्मचारी जो कोरोना काल में अपने अपने क्षेत्रों में अपनी ड्यूटी को बखूबी निभा रहे थे, हर चुनौती का सामना कर रहे थे, उन परिस्थितियों से जूझ रहे थे ,जिस परिस्थिति में आम इंसान सांस लेने में और किसी भी चीज को छूने से डर रहा था।
अब मै बात करती हूं घरेलू महिलाओं की। जिसके श्रम का आंकलन सदियों से न तो किसी महान विद्वान ने किया न किसी ज्ञानी महापुरुष ने किया। बस उसे आधी आबादी का नाम देकर उसके ऊपर मानो कोई एहसान कर दिया हो। महिलाओं को स्थिति पर जितना लिखा जाय कम ही है। बस उसके घरेलू काम को उसकी किस्मत और उसकी जिम्मेदारी जो कि उसे जन्मजात ही दी जाती है, उनको निभाने की हिदायत उसके मां बाप के द्वारा बचपन से दी जाती है कि तूने दूसरे घर जाकर दूसरे घर की दुनिया को संवारना है। ये सब उसे संस्कारों में सिखाया जाता है।
ये जो कोरोना है इस वायरस में घरेलू महिलाओं ने भी अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है। खासकर वो महिलाएं जिनके पति ड्यूटी देने घर से बाहर जाते थे। उसके सुबह के नास्ते और दिन का लंच बॉक्स तैयार करके देना और शाम को वापस लौटने का इंतजार करना। जैसे ही पति दहलीज पर कदम रखे तो बिल्कुल सुरक्षा कवच की तरह घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर स्प्रे वाला सेनेटाइजर लेकर खड़े रहना। अपने लिए भी खतरा मोल लेने से कहीं ज्यादा खतरनाक है। साथ ही घर के अन्य सदस्यों के सारे कामों की जिम्मेदारी लेना भी कम महत्वपूर्ण नहीं था।
पर अफसोस इस कोरोनाकाल में कभी भी किसी ने महिलाओं की मनोदशा पर न कोई विचार किया न किसी ने दो शब्द कहने की सोची। मेरी तो व्यक्तिगत राय ये है कि यदि महिलाओं को इस तरह की ड्यूटी देने का कोई सर्टिफिकेट देने कि आवश्यकता तो नहीं है, पर कहीं न कहीं उस पुरुषवादी समाज को अपने अंतर्मन में झांकने को जरूर कहूंगी। जो महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ घर के चौका चूल्हा और उसके परिवार की देखभाल के लिए दूसरे घर से लाई हूई नौकरानी जैसा व्यवहार करते है।
उनको इस समय अपनी सोच में परिवर्तन लाने को मौका मिल रहा है तो उनको अपनी सोच बदल देनी चाहिए। ताकि एक दूसरे घर से आई हूई महिला तुम्हारे लिए सब कुछ कर रही है उसके मन को ठेस न पहुंचे। एक और एकल महिलाओं की मनोदशा पर तो किसी ने सहानुभूति तक प्रकट नहीं की। एक तरफ वो महिलाएं जिसके कंधो परिवार को चलाने का बोझ हो तो उसने अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बिना घर से बाहर निकलना उसकी मजबूरी ही है। क्योंकि जरुरते और आर्थिक तंगी बहुत खराब होती है।
शायद और इसी वजह से कई महिलाएं आत्महत्या भी कर लेती हैं। बहुत सारी महिलाएं डिप्रेशन का शिकार भी होती है यानी की कोरोनाकाल में सुरक्षा की बात सर्वोपरि कहीं जानी वाली बात का तो उससे दूर दूर तक कोई वास्ता भी नहीं था। घरेलू हिंसा के मामले भी पूरे देश मे देखने को मिलते ही रहते है। इसके उलट जब हम बात करते है पहाड़ी जनजीवन की तो हिंसा का तो शायद ही कोई केश आया होगा। क्योंकि पहाड़ी महिला पहाड़ की रीढ़ होती है वो हमेशा अपने कामों में व्यस्त रहती है। सही मायने में उसे लॉकडाउन जैसे शब्द का अर्थ भी पता नहीं है। शहरों को भागदौड़ वाली जीवनशैली में महिलाएं कामकाजी हैं। उनकी तो नैतिक जिममेदारी अपनी ड्यूटी करना था। घर पर रहने वाली महिलाएं भी किसी न किसी तरह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करती हैं।
लेखिका का परिचय
आशिता डोभाल
सामाजिक कार्यकत्री
ग्राम और पोस्ट कोटियालगांव नौगांव उत्तरकाशी।
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।