कवि सोमवारी की पुस्तक- बचे हैं शब्द अभी, के समीक्षक भी सोमवारी, जानिए कविता संग्रह के बारे में
मूर्धन्य साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षाविद एवं समाजसेवी आदरणीय श्री सोमवारी लाल उनियाल ‘प्रदीप’ जी की नई काव्य कृति “बचे हैं शब्द अभी” प्राप्त हुई। 147 कविताओं का यह कविता संग्रह, काव्य के रूप में उनकी दूसरी पुस्तक हैं। ‘सब कुछ होने के सिवा’ उनका पहला कविता-संग्रह पूर्व में प्रकाशित है। यूं तो श्री उनियाल जी का विशद रचना संसार है। अर्ध शताब्दी की पत्रकारिता, हजारों संपादकीय, लेख, कविताएं आदि के अलावा “यात्रा जारी है”, “हथेली भर जिंदगी”, “संग्रामी परंपरा और मौजूदा परिदृश्य” “आगत के अक्षत” आदि ग्रंथ प्रकाशित हैं। लगभग उनके सभी ग्रंथों की समीक्षा मैंने अपने टूटे-फूटे अक्षरों में समय-समय पर की है। जिन्हें मूल रूप में प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में स्थान मिला है। उनके इस कविता संग्रह की समीक्षा करना भी समीचीन समझता हूं।
लॉकडाउन के दौरान जब अधिकांश लोगों का जीवन निराशा, हताशा और बेचैनी मे कट रहा था, उस दौरान 80 वर्ष की उम्र के लगभग आने वाले श्री उनियाल जी रचना धर्मिता में लगे रहे। एक ही क्षेत्र, एक ही मिशन ,एक ही अभिरुचि तथा एक ही नामालंकरण होने के नाते, श्री उनियाल जी सदैव मेरे प्रेरणा- स्रोत तथा गुरु तुल्य रहे हैं।
कोरोना महामारी ने जब विश्व में अपने पांव पसारे और लोग घरों में कैद हो गए, तो वयोवृद्ध साहित्यकार की कलम पुनर्जीवित हो उठी। कागज जिंदा हो उठे और अंतर्मन की अनुभूतियां साहित्य सागर में गोते खाने लगी। समृद्ध साहित्य जीवंत कविताओं का एक समग्र रूप “बचे हैं शब्द अभी” के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत हैं।
कविवर श्री उनियाल जी की स्वांत- सुखाय प्रस्फुटित कविताएं ग्रीष्मकालीन निर्झर से झरने वाली अमृत रस की बूंदों के समान टपकने लगी। उन्होंने अपने अंतर्मन की आवाज को सोशल मीडिया के द्वारा झंकृत किया और पुन रचित कविताओं को पुस्तक का रूप देकर विरासत के रूप में पीढ़ी को एक संग्रह उपलब्ध करा दिया ।
साहित्य प्रेमी होने के नाते कम समय में ही मैंने श्री उनियाल जी के कविता संग्रह का रसास्वादन कर लिया। बार-बार दोहराने का मन करने लगा और प्रत्येक कविता दिल को छूने लगी । जैसे – नववर्ष जरा संभलकर /आना हमारे घर/ चारों तरफ है लपटें/ कर्फ्यू लगा शहर में/ इस प्रकार कवि ने नववर्ष का अभिनंदन किया। “कहां खड़ा उत्तराखंड आज” में कवि ने सार प्रस्तुत करते हुए व्यंग्यात्मक शैली में कह दिया, चावल के एक दाने से/ लगता पकने का अंदाज/ खंडहर बता रहे हैं/ कहां खड़ा उत्तराखंड आज।
कवि के मन की पीड़ा भी कविताओं में उजागर होती है। कवि सदैव मानवतावादी रहे हैं और उनकी कविताओं में उनका दर्शन इस प्रकार झलकता है-लोक की सेवा में समर्पित/ तंत्र केवल साधन हमारा /स्वाभिमान सम्मान का प्रतीक/ तिरंगा प्राणों से भी प्यारा। प्रकृति ,संस्कृति और प्रवृत्ति से सदा कविवर का नाता रहा है। कोई ऐसा स्थल नहीं, जहां कवि की कल्पना और दृष्टि न गई हो। यथा-धरती को मानते जो अपनी जागीर/ बिगाड़ते रहते रोज उसकी तस्वीर / खून पसीने से जो अन्न उगाते /सड़कों पर उतरकर डंडे खाते।
या – “टोटकों से नहीं मिटेगी बीमारी /बदलना होगा पाखंड पूर्ण सोच/ छोड़कर थाल गाल बजाना/ चले विज्ञान पर निसंकोच”। अपनी कविताओं में श्री उनियाल जी ने वर्तमान परिस्थितियों ,स्थितियों का सही आकलन किया है। जैसे- “राजनीति से हुआ जब अपराधों का गठजोड़ /बिकने लगे थाने /अब बनी पुलिस रणछोड़/ तवा है इनका ,आटा उनका /रोटी सेंक सके तो सेंक/ आदि ।
कवि का रचना धर्म सदैव सृजन का रहा है। शब्द सर्जन हो या निर्माण। आम आदमी और उनका जीवन सदैव कवि के जेहन में रहता है। जिसे उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से इस प्रकार प्रस्तुत किया है-“देखता शिल्पकार/ बारीक नजर से कई बार/ कुछ कमी न रह जाए कहीं/ बन गई एक सुदृढ़ सुंदर दीवार/ पत्थरों को हथौड़ी- बसूली से तोड़ता तराशता बार-बार /राजमिस्त्री बनाता दीवार।
दीवार से कवि का तात्पर्य नवनिर्माण और नव सृजन से है ।संकीर्णता की दीवारों को तो कवि ने सदैव तोड़ा ही है। पर्वत के प्रति कविवर उनियाल जी प्रेम रहा है। उनकी कविता का एक उदाहरण है -कांकरा। कांकरा उनके लिए सदैव ऊर्जा ,ऊंचाई और सौंदर्य का प्रतीक रहा है। जिस पर्वत के इर्द-गिर्द मेरे जीवन की किशोरावस्था गुजरी, मैंने अपनी निगाहों से देखा, मेरी दिनचर्या का भाग जो रहा है, उसे कविवर ने इस रूप में प्रस्तुत किया है, यथा -“देख रहा बचपन से लेकर अब तक/ तेरा तापसी रूप / बाहर से बेहद कठोर/ भीतर से सरस सुकोमल/ साधनारत नयनाभिराम/ तेरी गुफाओं में निवास करते /गरूड़ बहुत सारे/ तेरी छांव तले बसा मेरा गांव/ मेरा भी मन हो जाता उद्वेलित/ छूने को आसमान।”
समयाभाव के कारण रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता की पंक्तियां याद आ जाती हैं। वन सुंदर घने अंधेरे/ कार्य अभी है निभाने को कुछ /और सोने से पहले चलना है मीलों अभी। श्री उनियाल जी अत्यंत सहृदय व्यक्ति रहे हैं। वन, पहाड़, बेटी, मां, खग- मृग के प्रति सदैव संवेदनशील रहे हैं। उन्हीं की कडियों में-” बज रही घंटियां वन में /उठ रही टेर मन में/ नहाकर तृप्त हो गई धारा/ बीथीयो में नया उन्माद भरा।
शब्द, शिल्प, संस्कार और काव्य सौष्ठव में भी श्री उनियाल जी की कविताएं अनूठी हैं ।उनका शब्द- शिल्प भावनाओं के साथ इस प्रकार मिश्रित तो जाता है ,जैसे दूध के साथ मिश्री। मैं श्री सोमवारी लाल उनियाल ‘ जी को शतायु होने की कामना करते हुए उन्हीं की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए, अपनी कलम को विराम देता हूं।
“करता नहीं समय कभी किसी का इंतजार/ पहुंचने को अस्सी के आसपास/ हम हो रहे तैयार /गांव हो या शहर/ थका नहीं कभी /कमजोर देह के भीतर/ कम नहीं हुआ आत्मबल/ भावनाओं का संसार/ कर रहे आज भी प्रेम का विस्तार”।
समीक्षक का परिचय
कवि -सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।
सचिव – उत्तराखंड शोध संस्थान (रजिस्टर्ड) चंबा इकाई
निवासी- सुमन कॉलोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
बहुत सुन्दर सोमवरी लाल उनियाल जी को नमन.
वे अच्छे रचना कार हैं.