पुस्तक समीक्षाः मेरी यादों का पहाड़, रस बस गया आत्मा मे
देवेंद्र मेवाड़ी की पुस्तक पढ़ी ‘मेरी यादों का पहाड़’। अद्भुत पुस्तक है। एक बार शुरू की तो 287 पृष्ठ पढ़ गया। इसमे पहाड़ की यादें तो हैं ही, साथ ही जीवन से भरा पहाड़ भी झांकता है। वे स्वयं लिखते हैं-“मेरी यादों का पहाड़। हाँ इजू मेरी यादों का पहाड़ ही तो है।आत्मा मे रस बस गया हो जो पहाड़ उसे भला कोई कैसे भूल सकता है ।”
वह मकान, वह घर आंगन, वे गाये भैंस, पानी के नौले धारे, वे चहचहाती चिड़िया, वनो मे बोलते जानवर, अगाश (आकाश) में उमडते बादल, वह झमाझम बारिश, वे छ्वां छवां बहते गाड गदेरे, वह घटियों मे उगता हौल, वे वन वन खिले बुरांस, वे सुरीले लोकगीत, वे हुड़के की थाते, वे ढोल के बोल, वे बांसुरी की धुने, वे जागर, वे ब्या काज, वे मेले, लंफू लालटेन के उजाले में पढाई के दिन…. तो यह सब सिलसिलेवार पढ़ने को मिला इस पुस्तक में ।
भाषा मे आंचलिक पुट और संवेदनशील अनुभूति से लबालब इस पुस्तक में विभिन्न शीर्षक दिये गये हैं । इसी मे वर्णन किया गया है। शीर्षक है-पाटी दवात, श्यूं बाघ, देवी देवता, त्यो त्यार, ब्या काज, बाज्यू का बैरागी बखत, चीड़वनो के बीच, ओ इजा आदि ।
बाज्यू का बैरागी बखत में वे लिखते हैं “दिन भर रन फन रन फर करने वाले बाज्यू खोये खोये से रहने लगे। कहीं बैठे होते तो हवा मे देखते हुए बैठे रहते। फिर जैसे कुछ याद आ गया हो भिड़क खड़े उठते और कहीं चल पडते। अक्सर सड़क के किनारे पत्थरो की दीवाल पर पैर पर पैर रखकर एक पैर को हल्हल हिलाते हुए दातो को घास के सिनके से कुरेदते हुए बैठे रहते। “यह बानगी की तौर पर यहां दे रहे हैं।घर कुड़िमे यह लिखा है-“पुरानी बाखली? तो वह कहां गई? “भसम हो ई “कहकर इजा उदास हो गई ।
कहीं जिम कार्बेट का जिक्र, तो कही पन्याली के बर्तन का, तो कहीं काकुनी के पक जाने की बात है। यह क्या बस पहाड़ ही पहाड़ है । शब्दो और अर्थो मे जिया हुआ पहाड़ है। बेहद घने अनुभवो और जुड़ाव की एक श्रृंखला है इसमे। पठनीय है और साथ ही संग्रहणीय भी। ऐसी कि जिसे बार बार पढने का मन हो। इसमे फोटो नहीं है। पर मानसी मेवाड़ी के बनाये स्कैच हैं। बहुत सुन्दर। नैनीताल समाचार मे इसकी किस्ते छपी थीं। यह राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत से छपी और इसका मूल्य 140 रुपये है।
समीक्षक का परिचय
डॉ. अतुल शर्मा
डॉ. अतुल शर्मा देहरादून निवासी हैं। उनकी कविताएं, कहानियां व लेख देश भर की पत्र पत्रिकाओ मे प्रकाशित हो चुके हैं। उनके लिखे जनगीत उत्तराखंड आंदोलन में हर किसी की जुबां पर रहे। वह जन सरोकारों से जुड़े साहित्य लिख रहे हैं। उनकी अब तक तीस से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।