अतिथि देवो भव, मेहमान का सत्कार, ना कर देना मेजवान पर अति
अतिथि देवो भव। यानी कि भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता की तरह पूजने की परंपरा है। अब धीरे-धीरे यह परंपरा भी समाप्त हो रही है। अब तो अतिथि का नाम सुनते ही लोग भयभीत होने लगते हैं।
अतिथि देवो भव। यानी कि भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता की तरह पूजने की परंपरा है। अब धीरे-धीरे यह परंपरा भी समाप्त हो रही है। अब तो अतिथि का नाम सुनते ही लोग भयभीत होने लगते हैं। सच तो यह है कि इस भागदौड़ में न तो कोई किसी के घर जाना ही पसंद करता है और न ही कोई यह पसंद करता है कि उसके घर कोई ऐसा मेहमान आए, जो कई दिनों तक रहे। मेहमान भी एक-आध दिन के लिए ही आते हैं, तो यह मेजवान व मेहमान दोनों के लिए ठीक रहता है। कई बार तो मेहमान मिलने के लिए आपके घर आते हैं और रहने को होटल में चले जाते हैं। मेजवान भी ऐसे हो गए कि वह यह तक नहीं कहते कि हमारे घर रुक जाओ। वह यही कहते हैं कि अच्छे होटल में रुके हो। वहां सभी सुविधाएं मिल जाएगी। मेहमान के आने पर अक्सर घर की महिलाएं इस बात ये भयभीत होने लगती है कि उसे ज्यादा रोटी बेलनी पड़ेंगी। ठूंस ठूंस का खाने की परंपरा समाप्त होने के साथ ही अब मेहमानों के आदर की परंपरा भी कम होती जा रही है। फिर भी कई लोग घर में मेहमानों को घर में बुलाना पसंद करते हैं। उनके सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। ऐसे लोगों ने ही आज पुरानी पंरपरा को जीवित रखा हुआ है।इन लोगों की वजह से ही अतिथि सत्कार की परंपरा समाप्त नहीं हुई है। आज भी लोगों के घर मेहमान आते हैं और रुकते हैं। ज्यादातर मेहमान करीबी रिश्तेदार या नातेदार ही होते हैं। अपरिचित के घर मेहमान बनकर रुकना काफी कम हो गया है। पहले ये आम बात थी कि उसी दिन के परिचय के बाद कोई घर में रात्रि विश्राम की जगह दे देता था। कई बार जीवन में ऐसे क्षण आए जब पहले परिचय में ही मुझे किसी के घर रुकना पड़ा।
वर्ष, 94 में ऋषिकेश में अमर उजाला में मैं कार्यरत श्री अशोक अश्क (दिवंगत) के पिताजी बीमार पड़ गए। उपचार के लिए वह अपने पिताजी को चंडीगढ़ पीजीआइ में ले गए। उनके बदले काम संभालने को मुझे देहरादून से ऋषिकेश भेजा गया। जब मैं ऋषिकेश पहुंचा तो वहां पहली बार ही मेरा आमने सामने का परिचय उनसे हुआ। वह मुझे व मेरा सामान अपने घर ले गए। मैं होटल की जिद्द करता रहा, लेकिन उन्होंने एक नहीं सुनी और जब तक वह चंडीगढ़ रहे, तब तक मैं उनके ही घर करीब एक सप्ताह रहा। इसके बाद मेरा तबादला ही ऋषिकेश हो गया। तभी भी कई माह तक मित्र अनिल नवानी जी के घर में मैने शरण ली। उनसे भी मेरा परिचय एक मित्र ने कराया था। वहां भी पारिवारिक संबंध बन गए।
इसी तरह मुझे आफिस के काम से मेरठ बुलाया जाता था। वहां कार्यरत अन्य साथियों से फोन पर परिचय था। मेरठ जाने पर जब साथियों से आमना-सामना हुआ तो रात को रहने की दिक्कत नहीं आई। अक्सर मेरठ जाने पर कोई न कोई साथी अपने घर ले जाता था। तब यह परंपरा थी। शायद जो समय के साथ अब या तो समाप्त हो गई या फिर कम पड़ गई। यही नहीं, एक बार तो एक व्यक्ति के घर जब मैं गया तो मुझे काफी आश्चर्य हुआ। उस व्यक्ति का किराए का कमरा काफी छोटा था। उनकी पांच छोटी-छोटी बेटियां थीं। एक ही कमरे में डबल बैड पर लाइन से सभी के लेटने की व्यवस्था की गई। वहीं मेरे लिए फोल्डिंग पलंग लगा दी गई। सच पूछो तो उस व्यक्ति का दिल कमरे से काफी बड़ा था।
इसी तरह मुझे मेरठ से बुलंदशहर के खुर्जा जाना था। रास्ते में संस्थान के बुलंदशहर कार्यालय प्रभारी के घर मैं रात को करीब साढ़े तीन बजे पहुंचा। उन्होंने मुझे कुछ देर घर में आराम के लिए बिस्तर दिया। फिर चाय नाश्ता देकर आगे के लिए विदा किया। उन दिनों को मैं आज भी याद करता हूं। खुर्जा जाते हुए भी बस में चढ़ने से पहले वहां दूसरे मीडिया में कार्य कर रहे पत्रकार कुंवर शुएब अख्तर से मेरी पहली मुलाकात हुई। खुर्जा पहुंचते ही पहले दिन मेरे रहने की व्यवस्था उन्होंने अपने ही घर पर की। इसके बाद अगले दिन किराए का मकान दिलाया। वहां बिस्तर, पलंग आदि भी कुंवर साहब ही लेकर आए।
ऐसा नहीं है, इस तरह का व्यवहार दोनों तरफ से ही होता था। मैं भी घर में ऐसे मित्र को लाता रहा, जो दूसरे शहर से ऑफिस के काम से आया हो। इसी तरह का व्यवहार हमारे पिताजी का भी था। तब घर छोटे थे, लेकिन दिलों में जगह ज्यादा थी। अब घरों का आकार बढ़ा तो लोगों के दिलों में महेमान के प्रति उतना उत्साह नहीं रहा। करीब तीस साल पहले की बात है। एक दृष्टिहीन बालक दृष्टिहीन विद्यालय में भर्ती किया गया। हमारा घर भी वहीं था। तब उस बच्चे के माता पिता जब भी अपने बेटे से मिलने आते तो हमारे घर ही ठहरते थे। कई बार तो वे मुझे देहरादून के पर्यटक स्थल घुमाने की जिद भी करते। मैं भी खुशी खुशी उनके साथ चला जाता था।
पहले जब घर में मेहमान आते थे, तो बच्चों से लेकर बड़े सभी खुश दिखाई देते थे। अब किसी के पास मेहमान तक के लिए ज्यादा समय तक नहीं बचा है। फिर भी जिस घर में छोटे बच्चे होते हैं, उस घर के बच्चे ऐसे मेहमान को पसंद करते हैं, जो बच्चों से आसानी से घुलमिल जाता है। यदि मेहमान बच्चों को बात-बात पर टोकने लगे या फिर समझाने लगे तो बच्चे ऐसे मेहमान के जाने की प्रार्थना करने लगते हैं। साथ ही बच्चे ऐसे मेहमान को पसंद करते हैं, जिसके बच्चे भी साथ आए हों। तब बच्चों को मेहमान के जाने का ज्यादा दुख होता है।
ऐसा ही एक किस्सा है कि एक परिचित के दिल्ली स्थित घर अक्सर उनके बड़े भाई आते थे। वह टीवी में चैनल बदलते रहते थे। इस पर घर के बच्चे भी परेशान होने लगे। ताऊजी उन्हें बात बात पर टोकते। बच्चे ताऊजी से परेशान होने लगते। एक दिन छोटा बच्चा बोला-ताऊजी ये टीवी आपका है या हमारा। ताऊजी निरुत्तर हो गए। ताऊजी भी लंबी अवधि के लिए आए थे। घर की बच्ची एक दिन बोली-ताऊजी आप कब जाओगे। इस पर ताऊजी बोले-बेटी मैं परसों जाऊंगा। बेटी रुआंसा होकर बोलने लगी कि परसों मत जाना। इस पर ताऊजी बोले-ठीक है कुछ दिन और रहूंगा। बच्ची बोली-कुछ दिन नहीं, आप अभी क्यों नहीं चले जाते। अब आपको तय करना है कि आप कैसा मेहमान बनना पसंद करोगे।
भानु बंगवाल





