युवा लेखिका किरन पुरोहित के पत्र के जवाब में आया अलकनंदा नदी का रुला देने वाला पत्र, (नदी को चिट्ठी, पत्र-2)
नौ दिसंबर 2020 को लोकसाक्ष्य के माध्यम से युवा लेखिका एवं कवयित्री किरन पुरोहित ने अलकनंदा नदी को पत्र लिखा था। इस पत्र का लिंक इस स्टोरी के अंत में दिया गया है। इसे आप पढ़ सकते हैं। किरन पुहोरित के पत्र का जवाब आज अलकनंदा नदी ने दिया है। इसे आप पढ़ें और एक बार ये चिंतन जरूर करें कि आखिरकार हम विकास के नाम पर कहां खड़े हैं। खैर हमारी लेखिका को अलकनंदा नदी के पत्र को हम यहां पाठकों को पढ़ाने जा रहे हैं।
प्रिय हिमपुत्री
स्नेहाशीष
तुम्हारा पत्र मिला सखी। तब से अब तक स्थिति कितनी बदली है, अब तो तुम भी जान ही गई होंगी। आज मैं अलकनंदा मृत शवों को गोद में लेकर विलाप करती हुई बह रही हूं और पूछ रही हूं कि क्या यही मेरे वात्सल्य का प्रतिफल है, जो आज का भारत मुझे दे रहा है ?
सखी ! मेरा जन्म हिमालय की उन शांत चोटियों मे हुआ जहां साक्षात देवताओं का वास है। इसे ही इंद्र की नगरी अलकापुरी कहा गया है। भागीरथ की प्रार्थना पर मैं इस स्वर्ग को त्याग कर शिव की जटाओं से बहती हुई धरती पर उतरी। केवल इसीलिए कि मैं मानवता की सेवा करूंगी। तब के भारत ने कृतज्ञ होकर मुझे मां माना और सदैव मेरे संरक्षण की चिंता की।
मुझे घाट – घाट पर पूजा तथा गंगा मैया कहकर मेरी आरती की। मैंने भी भारत की सभ्यता को फलने फूलने में सदा सहायता दी। उत्तर का विशाल मैदान मैंने अपने ममत्व की एक-एक रेत लाकर बनाया है। भारत की धरती पर रहने वाली मेरी संतानों के पोषण के लिए उन्हें अपने उस नीर क्षीर से सींचा है, जो दुनिया कि किसी भी नदी के पास नहीं है । सखी ! आज मैं अपने आंचल में जीवन और मोक्ष देने वाले अमृत जल के साथ ही अपने आंसू लेकर भी बह रही हूं।
किरन ! भारत आज वैज्ञानिक रूप से समृद्ध हो गया है, किंतु नैतिक रूप से दरिद्र बन गया है। नैतिकता के अभाव में आज भगीरथ की धरती मेरे साथ अन्याय पर अन्याय करती जा रही है। ये केवल मेरी ही नहीं, यह हर नदी की कहानी है। तुम मेरी बहन यमुना को ही देख लो, जो आज आचमन के लायक भी नहीं रही। किसी नदी के लिए यह बात मृत्यु के समान है कि वह किसी की प्यास बुझा नहीं सकती। भारत के अलग-अलग राज्यों में हम नदियों के जैसे भी हाल हैं, किंतु आज हम नदियां अपने घर में ही, अपने उद्गम में ही समाप्त होती जा रही हैं, मैं अपना उदाहरण देती हूं।
सखी ! जिस हिमालय से मुझे जीवन मिलता है उसी हिमालय की गोद में मैं जगह-जगह बंधी हुई हूं। मेरे पिता हिमालय की ऊंची ऊंची चांदी जैसी बर्फ से ढकी हुई चोटियां आज हिमालय को बर्बाद करने वाले तथाकथित विकास से टूटती जा रही हैं। मैं अलकनंदा रूप में वसुधारा से निकलती हूं। बद्रीनाथ जी के चरण स्पर्श करके भारत के कल्याण के लिए यात्रा करती हूं। मार्ग में मेरा मेरे ही एक रूप धौलीगंगा से संगम होता है, किंतु आज तुम इस संगम को नहीं देख सकती, क्योंकि विष्णुप्रयाग में ही मुझे बांध दिया गया है। बिजली के लालच में बांधकर मुझे सीमित करके आगे की यात्रा के लिए भेजा जाता है। इसी विष्णुप्रयाग में मुझसे मिलने वाली धौलीगंगा का दुख सुनो, जिसमें ऋषि गंगा नदी मिलती है। उस ऋषि गंगा को तपोवन में हुए ‘विकास वाले विनाश में’ प्रलय का तांडव करना पड़ा।
उस दिन जब अचानक मैंने चारों ओर मौत का सन्नाटा देखा और पाया कि मेरे आंचल में क्षत- विक्षत मृत शव तैर रहे हैं। मेरी जलधारा मे उन डूबे हुए गांवो की मिट्टी तैर रही है तो मैंने धौलीगंगा से जाना कि ऋषि गंगा ने कैसे अपना संयम तब तोड़ा जब लंबे समय तक रैणी घाटी में पेड़ कटते गए। बड़े-बड़े धमाके होते गए और जलधारा से बिजली उत्पादन का बहुत बड़ा कार्य चल रहा था। जिस पर बारहमास हिमालय के जंगलों में लगी भयंकर आग और प्रदूषण से पिता हिमालय पिघलने लगे और बहुत बड़ा हिमस्खलन हुआ। इससे ऋषि गंगा अपनी सीमा लांघ कर बहने लगी। मैंने अपने आंसू पोंछे और कहा कि अब सीमाएं कहां रह गई हैं। कुछ मानव ने पार की हैं और कुछ सीमाएं पार करने के लिए प्रकृति मजबूर हो गई है ।
सखी मैं सब प्रकार के कल्याण के लिए अपनी जलधारा भारत की सेवा में लगाने के लिए प्रतिबद्ध हूं। तुम्हारे पूर्वजों ने भी छोटे-छोटे घराट लगाकर मेरे वेग से अपने पालन पोषण हेतु अनाज को पीसने की व्यवस्था की थी। वे तुम्हारी पीढ़ी की भांति अति वैज्ञानिक और महत्वकांक्षी नहीं थे, बल्कि संतोषी जीव थे। मैं खुशी-खुशी उन का भरण पोषण करती थी और उनके संतोष से तृप्त थी। आज इस अति वैज्ञानिकता और इस अत्यंत महत्वाकांक्षा ने सभी सीमाएं पार कर दी हैं। तुम्हारे पूर्वज कह गए हैं कि धरती असंख्य लोगों की इच्छा पूरी कर सकती है, किंतु एक महत्वकांक्षी और लोभी की इच्छा पूरी नहीं कर सकती। यह बात मुझ पर भी लागू होती है। मैं आज के भारतवंशियों की महत्वाकांक्षा का वहन करने में असमर्थ हूं और जब जब इनकी महत्वकांक्षी सीमाएं टूटने लगेंगी तो मेरी जलधारा भी सीमाएं तोड़कर प्रकृति के विरुद्ध सभ्यता का विनाश करने हेतु मजबूर हो जाएंगी।
इस विनाश के लिए मैं जीवनदायिनी बिल्कुल भी दोषी नहीं हूं सखी। इसमें तो उनका दोष होगा जो लालच में सीमाएं तोड़ते जा रहे हैं और इसी सिद्धांत पर चल रहे हैं कि विकास तभी होगा जब विनाश होगा। इनसे निवेदित करो सखी कि यदि कि ये मेरी प्रकृति का विनाश करेंगे तो इनका विकास नहीं बचेगा। इनका भी विनाश निश्चित हो जाएगा ।
महत्वकांक्षी परियोजनाओं से मैं विष्णुप्रयाग में बंधी हूं। मुझे श्रीनगर में बांधा गया है । जब केदारनाथ में महत्वाकांक्षाओं ने सीमा लांघ दी तब मेरी ही जलधारा मंदाकिनी ने ऐसा प्रलय किया की इतिहास उसे प्रकृति के कोप के सबसे बड़े उदाहरण के रूप में याद रखेगा।
सखी ! भागीरथी और भिलंगना कि टिहरी आज बांध में डूबी और खोखले विकास की झूठी चांदनी में ऐसी खोयी है कि ऋषिकेश से दिल्ली और कोलकाता तक की सभ्यता केवल प्रकृति की दया पर ही अस्तित्व में है। दिल्ली और उत्तर भारत की आयु अनंत रहे, किंतु अपने ही सिर पर प्रलय का बम बांधे रखना क्या मूर्खता नहीं कहलाएगी ? भागीरथी और भिलंगना का धैर्य ना टूटे यह प्रार्थना करो ।
कथा बहुत लंबी है सखी! तुम्हारे प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा रहेगी। मेरी संतानों को इस कोरे विकास की नींद से जगाने का प्रयास करो। मैं तुम्हारी गूंज को गुंजायमान करने का प्रयास करूंगी। तुम गंगा की वेदना का गान करो। तुम्हारे हाथों का स्पर्श करके उन पर अपना ह्रदय रख कर रोने की इच्छा हो रही है ।
तुम्हारी चिट्ठी के इंतजार में
तुम्हारी सहेली
अलकनंदा नदी
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लेखिका का परिचय
नाम – किरन पुरोहित “हिमपुत्री”
पिता -दीपेंद्र पुरोहित
माता -दीपा पुरोहित
जन्म – 21 अप्रैल 2003
अध्ययनरत – हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय श्रीनगर मे बीए प्रथम वर्ष की छात्रा।
निवास-कर्णप्रयाग चमोली उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद लोकसाक्ष्य। । जन जन अलकनंदा की आवाज सुने ।। आज आत्ममंथन का समय है ।??
बहुत ही उम्दा किरन, नमन है इतनी छोटी आयु में इतनी गहन सोंच के लिए ?