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December 14, 2024

सेलरी आई और बाबा चबाने लगा कष्ट, मुंह से छुड़ाया सेलरी का एक हिस्सा, पढ़िए रोचक घटना

मोबाइल में मैसेज आने पर अंकित को पता चला कि बैंक में सेलरी आ गई है। मैसेज पढ़ने पर उसे इस बात का दुखः हुआ कि इस बार भी सेलरी कटकर आई है। उसे उम्मीद थी कि जब सब कुछ खुल र हा है तो सेलरी भी सामान्य हो जाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं। प्रबंधकों को तो बहाना चाहिए। बहाना था कोरोना का। लॉकडाउन हुआ और अंकित के कई सहयोगियों की नौकरी गई। गनीमत थी कि उसकी नौकरी बची रही। कंपनी ने ठोक कर काम किया और निकालने का भय भी दिखाया। घाटा हो रहा है। ऐसा हर बार सेलरी के दौरान कहा जाने लगा। कहा गया कि तुम्हारी नौकरी इसलिए बची है, कि काम करने वालों की हम कदर करते हैं।
फिर सेलरी भी क्या थी। बीस हजार मिलते थे। घाटे का बहाना बनाकर उसे दस कर दिए गए। यानी पचास प्रतिशत सेलरी का भुगतान हो रहा था। आधी सेलरी में करते रहो काम। नई नौकरियां हैं नहीं और आधी में गुजारा करना मुश्किल। गुजारा तो करना ही था। शादी के लिए पैसे जोड़ रहा था, वो तो अब भूल ही गया। तीन हजार रुपये में किराए का कमरा छोड़ा और छोटा सा बारह सौ रुपये में कमरा लिया। इसी तरह अपने खर्च में कटौती की। जैसे तैसे सिर्फ पेट भरा जा रहा था इस आधी तनख्वाह में।
सेलरी आने से पहले ही अंकित आगामी खर्च का खाका भी मन में खींच चुका था। वह जानता था कि यह राशि उसके हिसाब से काफी कम है। वह कर भी क्या सकता था। सिर्फ अपुनी किस्मत के साथ ही कोरोना को कोसने के सिवाए। बैंक से सप्ताह के बजट के हिसाब से पैसे निकालने के बाद वह किसी काम से मोटरसाइकिल से देहरादून की चकराता रोड को रवाना हुआ। भरी दोपहरी में धूप कांटे की तरह चुभ रही थी। बल्लूपुर चौक से आगे सड़क कुछ सुनसान थी। तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी।
उसने मोटर साइकिल सड़क किनारे खड़ी की और फोन रिसीव किया। काल उसके मित्र की थी। जो दूसरे संस्थान में कार्यरत था। मित्र खुश था कि इस बार उसकी कंपनी ने पूरा वेतन दिया। वह जानना चाह रहा था कि अंकित को अभी भी पुराना काटकर वेतन मिल रहा है या फिर असल सेलरी दी जाने लगी है। निराश अंकित ने उसे यही बताया कि कुछ नहीं हुआ और फोन काट दिया। वह सोच रहा था कि ऐसा हर बार होता है। जब भी सेलरी का समय आता है, एक उम्मीद रहती है कि इस बार सामान्य हो जाएगा, लेकिन मालिकान को तो कर्मचारियों की ओर देखने की फुर्सत कहां हैं।
इंक्रीमेंट तो लगा नहीं, उसे सब भूल गए। नहीं तो अप्रैल माह में इंक्रीमेंट पर बात होती। अब तो दिसंबर आ गया और इंक्रीमेंट तो छोड़ो, इस बार तो पूरा वेतन पाने के लाले पड़े हैं। वह जानता है कि कंपनी में उच्च पदों पर बैठे लोग अपनी सेलरी ज्यादा कराने के फेर में नीचले कर्मियों के बेतन में मामूली इजाफा कराते हैं। जब सेलरी बढ़ने की बात आती है तो अधिकारी वर्ग यह जताता है कि वह नालायक है। उसके यह समझ नहीं आ रहा था कि सालभर लायक रहने के बावजूद वेतन बढ़ने के दौरान वह नायालक कैसे हो जाता है। इन्हीं विचारों में वह खो गया गया कि तभी अंकित को एक आवाज सुनाई दी- बेटा यहां आओ, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।
अंकित ने देखा कि सड़क किनारे पेड़ की छांव में एक साधु बैठा है। वही उसे बुला रहा है। वह ऐसे बाबाओं से बचता रहता था। इस दिन वह निराश था और वह कुछ कदम आगे बढ़कर बाबा के पास खड़ा हो गया। तभी साधु ने कहा- बेटा तुम दुखी लगते हो। बाबा को दुख बताओ, सारे दुख दूर हो जाएंगे।
बाबा आप स्वयं अंतरयामी हो, आपको मेरे दुख पता होने चाहिए। इस जमाने में सुखी कौन है- अंकित बोला।
ऐसा करो बाबा को चाय पिला दो। बस भगवान तेरे दुख हर लेगा- साधु ने कहा
अंकित मोटर साइकिल में किक मारकर बाबा से पीछा छुड़ाने की सोच रहा था। जैसे ही वह मोटर साइकिल में बैठा तभी बाबा बोला- बच्चा जिद मत कर मेरी बात मान ले।
अंकित के मन में न जाने क्या ख्याल आया उसने पर्स निकाला और एक दस का नोट तलाशकर बाबा को थमा दिया। तिरछी नजर से उसके पर्स की तरफ देख रहे बाबा ने यह जान लिया कि पच्चीस साल के इस युवा के पर्स में अच्छी खासी रकम है। उसने दस रुपये लेते हुए कहा-बेटा यह बताओ कि तुम दुख चाहते हो या सुख।
अंकित ने कहा-बाबा दुख कौन चाहेगा। सभी सुख चाहते हैं और मै भी यही चाहता हूं।
बाबा बोला- बेटा तुम्हारी कमजोरी यह है कि मन की बात हर किसी को बता देते हो। जिसका भला करते हो वह तुम्हारी बुराई करता है। तुम्हारी किस्मत में सुख की जगह दुख ही ज्यादा आते हैं। ऐसा करो कि तुम्हारे पर्स में जो बड़ा नोट है, वह मुझे दो मैं उस पर फूंक मारूंगा। उस नोट से तुम्हारी किस्मत बदल जाएगी।
अंकित ने सोचा कि नोट पर फूंक मरवाने पर क्या हर्ज है। उसने पर्स से दो हजार का नोट निकाला और हाथ में कसकर पकड़कर बाबा के मुंह के आगे कर दिया। बाबा बोला- यह नोट मेरे हाथ में दो। अभी तुम्हारे कष्ट दूर करता हूं। बाबा की बातों का सच जाने को अंकित ने दो हजार का नोट बाबा के हाथों में थमा दिया।
नोट को उलट-पलटकर देखने के बाद बाबा ने उसे कई तह में फोल्ड किया। फिर अचानक नोट को अपने मुंह में डाल दिया और चबाने का उपक्रम करने लगा। अंकित ने देखा कि यह बाबा तो उसकी सेलरी का एक हिस्सा चबा रहा है। वह मन ही मन भय से सिहर उठा कि कहीं वह इस राशि से भी हाथ ना धो बैठे। वह बोला- बाबा क्या कर रहे हो।
निराश मत हो बच्चा, मैं तेरे दुखों को चबा रहा हूं- बाबा बोला। जो अंकित के नोट को निगलना चाहता था। अंकित ने यह देखकर कहा कि बाबा मेरा नोट वापस करो। तभी तपाक से बाबा बोला-यह धन ही दुखों का कारण है, इस दुख को मैं चबा डालूंगा।
अंकित को यह बाबा उस नेता के समान लग रहा था, जो यह कहता कि जनता की भलाई उसका धर्म है, लेकिन जनता का खून चूसता रहता। या फिर वह डाक्टर जो मरीज को बचाने के लिए उसकी पूरी जेब लूट लेता है। या फिर वह अधिकारी जो उससे कमर तोड़ काम कराता है, लेकिन वेतन बढ़ाने में उसे नालायक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। सभी तो लुटेरे हैं, जहां जिसे जैसा मौका मिले वह लूट लेता है। वह कहां फंस गया इस बाबा के पास।
घर का बजट बिगड़ता देख अंकित को अब गुस्सा आने लगा। उसने साहस बटोरा और बाबा का गला पकड़ लिया। दोनों हाथों से उसका टेंटुआ दबाया और बोला-मेरा नोट वापस निकाल। हड़बड़ाकर बाबा ने दो हिंचकी ली और नोट मुंह में दांतों तले ले आया। बोला-बेटा ये दुख खुद ही अपने हाथ से निकाल ले।
तब तक नोट काफी गीला हो चुका था। उसे देखकर अंकित घिना रहा था। उसने बाबा से कहा कि नोट को उसकी कमीज की जेब में डाल। साथ ही उसने बाबा के गले पर हाथों का दबाव और बढ़ा दिया। बाबा ने वैसा ही किया। नोट अंकित की जेब में डाल दिया। इस नोट को लेकर वह पेट्रोल पंप गया और पहले तह खोलकर सुखाया। फिर सौ रुपये का पेट्रोल मोटरसाइकिल में डलवाया और दो हजार का यह नोट चलाया। बाकी बचे पैसे जेब में डालकर वह पानी की टंकी के पास गया और अच्छी तरह से हाथ धोए। तब जाकर अपनी मंजिल को आगे बढ़ा। वह सोचने लगा कि वाकई इंसान के दुखों का कारण यह जर ही तो है। बजट में कम पड़े तो दुखी, ज्यादा हों तो दुखी, कोई ठग ले तो दुखी। इस दुख को वह बाबा के मुंह से छीनकर पेट्रोल पंप में दे आया था।
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भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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