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December 23, 2024

विजय जड़धारी की पुस्तक- उत्तराखंड की प्राकृतिक खाद्य प्रजातियां, दमदार लेखन और शानदार जानकारी

 प्रख्यात समाजसेवी, पर्यावरणविद और बीज बचाओ आंदोलन के संयोजक विजय जड़धारी जी की अद्यतन पुस्तक "उत्तराखंड की प्राकृतिक खाद्य प्रजातियां" उपलब्ध हुई।  पुस्तक का अध्ययन किया और संचित ज्ञान की गहराई से रू-ब-रू हुआ।

 प्रख्यात समाजसेवी, पर्यावरणविद और बीज बचाओ आंदोलन के संयोजक विजय जड़धारी जी की अद्यतन पुस्तक “उत्तराखंड की प्राकृतिक खाद्य प्रजातियां” उपलब्ध हुई।  पुस्तक का अध्ययन किया और संचित ज्ञान की गहराई से रू-ब-रू हुआ। यूं तो आदरणीय विजय जड़धारी जी की अनेक पुस्तकों का मैंने अध्ययन किया है। इनमें बारहनाजा, उत्तराखंड में पौष्टिक खानपान की संस्कृति, पहाड़ी खेती, पारंपरिक बीज संरक्षण एवं जैविक पद्धतियां आदि। अब प्रस्तुत पुस्तक न केवल पर्वतीय क्षेत्रों, बल्कि संपूर्ण विश्व के शोधार्थियों के लिए एक मील का पत्थर होगी।
मौलिक ज्ञान के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह जड़धारी की के मौलिक ज्ञान के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भी परिचायक है। जंगलों से प्राप्त होने वाले अनेक फल- फूल, कंदमूल, साग-सब्जियां, स्वास्थ्यवर्धक जड़ी- बूटियां और वनस्पति को इस पुस्तक में भौगोलिक, आर्थिक संरचना, वातावरण के अनुसार स्थान दिया गया है। पुस्तक के प्रत्येक अध्याय में लोकभाषा, लोक संस्कृति, लोक समाज, लोक साहित्य के अनुरूप तथ्यों को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। साथ ही पारंपरिक खेती, जल, जंगल और जमीन तथा अज्ञानता के गर्त में गई हुई अनेक चीजों को भी  उजागर किया गया है।
विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी हो सकती है उपयोगी
बौद्धिक संपदा से युक्त यह पुस्तक आम व्यक्तियों से लेकर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित की जा सकती है। पुस्तक के प्रत्येक अध्याय पर विशद शोध कार्य किए जा सकते हैं जो कि आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत है। पुस्तक का प्राक्कथन महिला सशक्तिकरण की जीवंत हस्ताक्षर कुसुम रावत जी के द्वारा लिखा गया है जो कि समीचीन है। स्वयं कुसुम भी पर्यावरण, समाज सुधार और नारी शक्ति की एक विशिष्ट पहचान हैं। विजय जड़धारी ने पुस्तक के संदर्भ में समग्रता को समझते हुए स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने की परिकल्पना को साकार किया है।
ऐसा शोध, जिसे सदियों से पूर्वजों ने किया
उत्तराखंड की “प्राकृतिक खाद्य प्रजातियां” पुस्तक किसी कपोल कल्पित ज्ञान पर आधारित न होकर पूर्ण रूप से वैज्ञानिक शोध पर आधारित एक दस्तावेज है। एक ऐसा वैज्ञानिक शोध कार्य जो कि हमारे पूर्वज सदियों से करते आए हैं। आज  जिसका विस्तारीकरण विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों और छात्रों के द्वारा गतिमान है। हमारे पूर्वज भावनायुक्त कल्पनाओं से अनुरंजित चैतन्यता और वैज्ञानिक सोच के दृष्टा रहे हैं। भले ही उन्हें अक्षर ज्ञान कम रहा हो लेकिन उनके द्वारा किया गया कार्य अनुभव और प्रयोग पर आधारित था।उनके मूल मे प्राकृतिक तत्व विद्यमान हैं।
गढ़वाली के साथ ही विशुद्ध हिंदी और अंग्रेजी शब्दावली का प्रयोग
प्रकृति को अपनी शिक्षिका समझ कर, आदिकाल से आधुनिक काल तक हमारे पुरखों विशेषकर मातृशक्ति ने, कृषि क्षेत्र, पशुपालन, वन संपदा, सदानीरा नदियां और अपनी पारिस्थितिकी के अनुरूप जो कार्य किए हैं। वह अनुकरणीय हैं। उन सभी के द्वारा दी गई  विद्या को विजय जड़धारी ने आगे बढ़ाया और अपने जीवन के व्यापक अनुभव के द्वारा अंधकार में डूबे हुए उस ज्ञान को धरातल पर उड़ेला। प्रस्तुत पुस्तक में गढ़वाली भाषा के अतिरिक्त विशुद्ध हिंदी और अंग्रेजी की शब्दावली का भी प्रयोग किया गया है जो कि अनुकरणीय है। पाठकों के लिए ज्ञान गम्य, सुविधाजनक और सुसंगत है।
घरेलू कार्यों में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं का प्रस्तुतिकरण
पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाली बेरियां, साग-सब्जियां, बिना बोज उगने वाली सब्जियां, पहाड़ी मसाले, जमीन के अंदर उगने वाले कंद, औषधीय पादप, जंगली तिलहन, अनेक प्रकार के जंगली पेड़- पौधे, घरेलू निर्माण कार्य में प्रयुक्त होने वाले पेड़-पौधों के साथ-साथ हमारी आजीविका को चलाने वाले अनेकों आर्थिक संसाधनों से युक्त वनस्पतियां, जीव धारियों, जलचर और स्थल चरों के बारे में भी सरल भाषा में प्रस्तुतीकरण किया है।

आंकड़े एकत्र करने में की लेखक ने मेहनत
पुस्तक के परिशिष्ट में जड़धारी जी ने मेहनत कर  डाटा, आंकड़े भी प्रस्तुत किए हैं। इनके लिए उन्हें स्थान- स्थान पर जाना पड़ा। उन्होंने नदियों, घाटियों, विभिन्न स्थलों, विश्वविद्यालयों, समाज के जानकार व्यक्तियों, बूढ़े- बुजुर्गों और उदीयमान छात्रों से भी अनेकों बार पुस्तक को लिखने से पूर्व परामर्श किया होगा। इससे उनका शोध कार्य परिपक्व अवस्था में पाठकों के सम्मुख आया है। पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले उपयोगी वृक्षों, कंदमूल, फल, शोभादार, छायादार, फलदार  और औषधीय वृक्ष तथा वनस्पतियों की सम्यक विवेचना की नहीं, बल्कि वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया है।
उपयोगिता के साथ किया वनस्पति का प्रस्तुतिकरण
यूं तो पर्वतीय क्षेत्र के अधिकांश लोग अपने परिवेश में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों, जंगली पेड़ -पौधों, कंदमूल, फलों के बारे में जानते हैं। जैसे-काफल, हिंसर, किनगोड, तोत्तर, बेडू, बमोरा, तिमला, तुलसी, हरड़, बहेड़ा, आंवला, चुलू, अखरोट, पैंय्या, लेंगड़ा, कंडाली, अमेल्डा, बुढ़णी, मशरूम तल्र्ड, कालीजीरी, पिपली वज्रदंती, पत्थरचट्टा, चिरायता, मेंग्वा, मीन आदि लाखों प्रजाति की जंगली वनस्पति, असंख्य मछलियों की प्रजातियों के बारे में सदियों से जानते हैं। वहीं, उनकी उपयोगिता और महत्व को सदैव नजरअंदाज किया गया है। जड़धारी जी ने अपनी पुस्तक में स्थिति, परिवेश और पारिस्थितिकी के अनुरूप  उनकी पैदाइश, उनके वैज्ञानिक नाम, वनस्पतियों की उपयोगिता और लाभ के बारे में भी सम्यक रूप से उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। अनेक ऐसी वनस्पतियां हैं जो कि हमारे पर्वतीय क्षेत्रों में धार्मिक आस्था की प्रतीक रही हैं। हम उनकी धार्मिक उपयोगिता को तो खूब समझे हैं, लेकिन उनके वैज्ञानिक और आर्थिक महत्व को समझने में कमी रही है। जड़धारी जी का यह शोध उस कमी को पूरा करेगा। ऐसा मेरा मानना है। मैं विजय जड़धारी की पुस्तक की सफलता की कामना करता हूं।
मिशन में दिन रात लगे रहते हैं जड़धारी     
पर्वतीय क्षेत्रों में उपयोगी घास, कुकाट और नाम रहित महत्वपूर्ण वनस्पतियों के बारे में भी वे अपने अनुभव और विश्व वैज्ञानिक खोज के द्वारा अनेक पुस्तकें, शोध ग्रंथ वे लिखेंगे। इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना है कि उनको लंबी उम्र दें। साथ ही उनको संसाधन भी उपलब्ध हों। उनके द्वारा उनका अर्जित ज्ञान का सीधा लाभ समाज को मिल सके। साथ ही उन्हें कृषि वैज्ञानिक की मानद उपाधि (डाक्टरेट) से भी नवाजा जाए। ताकि उत्साहवर्धन भी हो सके। विजय जड़धारी ने अच्छे लोगों की संगति में रहकर सदैव अच्छे कार्य किए हैं। उनके आंदोलन भी सदैव ही समग्र समाज, पर्यावरण, लोक समाज और जीवन की उपयोगिता से जुड़े रहे हैं। आज भी 68 वर्षीय श्री जड़धारी के अंदर किसी नौजवान से भी अधिक उत्साह और कार्य करने की क्षमता है और वह अपने मिशन पर दिन रात लगे रहते हैं।
शानदार आवरण और चित्र
प्रस्तुत पुस्तक को सुंदर चित्र उपलब्ध कराने के लिए जड़धारी जी के पुत्र विपिन को भी मैं धन्यवाद देता हूं। उन्होंने एक टीम के रूप में अपने यशस्वी पिता की पुस्तक प्रकाशन करवाने के लिए सार्थक प्रयास किया। साथ ही समाज के उन सभी नायकों को प्रणाम करता हूं, जिनका प्रभाव श्री विजय जड़धारी के व्यक्तित्व और कार्यों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पड़ा है। उनके सहयोगियों, प्रेरणा स्त्रोतों में जैसे- स्वर्गीय गोपेश्वर प्रसाद कोठियाल, स्वर्गीय सुंदरलाल बहुगुणा, स्वर्गीय कुंवर प्रसून, आदरणीय धूम सिंह नेगी जी, स्वर्गीय प्रताप शिखर, स्वर्गीय गंगा प्रसाद बहुगुणा,श्री रघुभाई जड़धारी आदि।
और अंत में…
विजय जड़धारी पारंपरिक कृषि, मिश्रित खेती, पशुपालन,फसल सुरक्षा, रासायनिक खादों के दुष्प्रभाव, जैविक खेती को आगे बढ़ाने के प्रयासरत हैं। “उत्तराखंड की प्राकृतिक खाद्य प्रजातियां” में वह सब कुछ है जिसकी हम अपेक्षा करते हैं। मुझे आशा है की पुस्तक पाठकों को रोचकता के साथ विशद जानकारी उपलब्ध करेगी। आम व्यक्ति से लेकर छात्र-छात्राएं शिक्षक, प्राध्यापक अपने कार्य की प्रकृति के अनुसार व्यावहारिक धरातल पर  श्री जड़धारी जी के इस ज्ञान  क्रियान्वयन करेंगे।


पुस्तक लेखक का परिचय
नाम-विजय जड़धारी
उत्तराखंड के जड़धार गांव, टिहरी गढ़वाल में रहने वाले समाज सेवी विजय जड़धारी भारत के संरक्षणवादी कार्यकर्ता हैं। वे ‘बीज बचाओ आन्दोलन’ के प्रणेता हैं। उन्होने ‘बारहनाजा’ नामक एक पुस्तक की रचना की जिस पर उन्हें गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली द्वारा सन् 2007 का ‘प्रणवानन्द साहित्य पुरस्कार प्रदान किया गया। वे चिपको आन्दोलन से भी सम्बद्ध रहे हैं। कई दशकों से इस बुजुर्ग ने ‘बीजों के संरक्षण’ के लिए आंदोलन छेड़ रखा है। बीजों को बचाने के लिए विजय ने 1986 में ‘बीज बचाओ आंदोलन’ शुरू किया था, जोकि अब तक जारी है। ऐसे में जानना दिलचस्प होगा कि विजय जड़धारी का ‘बीज बचाओ आंदोलन’ क्या है और वो कैसे इसकी मदद से देश के बीज बचाने में जुटे हुए हैं। उन्होंने 350 से अधिक प्राचीन बीजों का सफल संरक्षण भी कर लिया। विजय का यह संघर्ष आसान नहीं था। फोन नंबर: 09411777758


पुस्तक के समीक्षक का परिचय
नाम- सोमवारी लाल सकलानी
कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी, निशांत सेवानिवृत शिक्षक हैं। वह नगर पालिका परिषद चंबा के स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर हैं। वर्तमान में वह सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में रहते हैं। वह वर्तमान के ज्वलंत विषयों पर कविता, लेख आदि के जरिये लोगों को जागरूक करते रहते हैं।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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