विश्व साइकिल दिवस: साइकिल की सवारी आज बनी फैशन, कभी थी शान, जब चोरी हुई तो घंटो रोता रहा परिवार
आज विश्व साइकिल दिवस है। नेता लोगों से लेकर कई सामाजिक संस्थाओं से जुड़े लोग एक दिन के लिए साइकिल की सवारी करेंगे। फोटो खिंचवाएंगे। भाषण देंगे और मन गया विश्व साइकिल दिवस।
वह दौर ऐसा था जब, देहरादून की मुख्य सड़क राजपुर रोड सुनसान रहती थी। इस सड़क पर साइकिल ही नजर आती थी। स्कूटर व कार तो कभी-कभार ही सड़क पर दिखते। हां एक-एक घंटे के अंतराल में सिटी बस जरूर नजर आती थी। जो घंटाघर से राजपुर के लिए चलती थी, या फिर कुछ बस शहनशाही आश्रम तक भी जाती थी। शहर के लोगों के लिए आवाजाही का बस ही सबसे सुलभ साधन हुआ करता था। तब दुर्घटनाएं भी साइकिल से होती थी। जैसे मैं घर के पास नहर के किनारे मोहल्ले की संकरी सड़क पर जा रहा था। पीछे से एक साइकिल वाला ठोक गया। एक की साइकिल के आगे डंडे में मैं बैठा था और अगले पहिये की चपेट में मेरा पैर आ गया और पंजे की खाल उधड़ गई।
उस समय आटो पर बैठना हरएक के बूते की बात नहीं थी। कुछ एक तांगे भी सड़क पर नजर आ जाते थे। तब साइकिल भी हरएक के घर नहीं होती थी। साइकिल खरीदने वाले को नगर पालिका से उसका लाइसेंस भी बनाना पड़ता था। कितना अंतर आ गया तब और अब में। अब छोटे बच्चे दो से तीन साल में ही साइकिल बदल नई की डिमांड कर देते हैं। उस समय साइकिल खरीदना भी ऐसा था, जैसे आज लोग घर बनाने का सपना देखते हैं। साथ ही तब रेडियो भी हर घर में नहीं होता था। ऐसे में जब कोई अपने घर में रेडियो पर समाचार लगाता, तो आस पड़ोस के लोग भी सुनने पहुंच जाते। तब रेडियो के स्टेशन पकड़ने के लिए छत पर लोहे का जालीदार एंटीना लगता था। उसकी तार से रेडियो कनेक्ट होता था।
जिस समय मैं करीब पांच साल का था। साइकिल चला नहीं सकता था, लेकिन यह जरूर चाहता था कि हमारे घर भी साइकिल हो। जिसे मेरा बड़ा भाई चलाए और मैं पीछे बैठूं। घर का सामान लाने के लिए करीब चार किलोमीटर दूर पल्टन बाजार तक जाना पड़ता था। साइकिल रहती तो बड़ा भाई इसमें ही लादकर राशन ला सकता था। इसी जरूरत को महसूस करते हुए पिताजी ने आफिस से साइकिल के लिए ऋण लिया और घर में आ गई एटलस कंपनी की नई साइकिल।
घर में सब खुश थे। भाई ने चलानी भी सीख ली। साथ ही उस पर घर के सामान लाने की जिम्मेदारी भी पड़ गई। मैं सुबह उठकर कपड़ा लेकर साइकिल को साफ करता कि कहीं गंदी न रहे। अपनी उम्र के आस पड़ोस के बच्चों को साइकिल छूने से भी मै मना करता। साथ ही सबसे कहता कि जब कुछ और बड़ा हो जाउंगा तब चलाउंगा।
घर में साइकिल आए छह माह बीत गए। एक दिन बड़ा भाई किसी काम से गांव के एक व्यक्ति के साथ बाजार तक गया। देर रात को दोनों घर लोटे तो उनके पास साइकिल नहीं थी। पता चला कि बाजार में एक दुकान के बाहर से साइकिल चोरी हो गई। बस क्या था पिताजी का गुस्सा सातवें आसमान पर। भाई को काफी डांट लगी। घर में सब भाई बहन ऐसे रो रहे थे, जैसे कोई सगा बिछड़ गया। बहनें उस व्यक्ति को कोस रही थीं, जिससे साथ भाई साइकिल लेकर गया था। बड़े होकर साइकिल चलाने का मेरा सपना भी टूट बिखर रहा था। ये रोना धोना देर रात तक चला। जब आंसू सूख गए तो सब चुप होकर सो गए।
इसके बाद से हर दिन रास्ते में आती-जाती साइकिल को मैं ध्यान से देखता कि कहीं हमारी साइकिल दिख जाए। साइकिल चोरी होने का सदमा हमें कई साल तक रहा। इसके बाद घर में दोबारा साइकिल आने का मुझे पूरे छह साल तक इंतजार करना पड़ा। दूसरी बार पिताजी ने मेरे लिए आफिस से ऋण लेकर तीन सौ रुपये में साइकिल खरीदी थी। (जारी)
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।