कवि सोमवारी लाल सकलानी निशांत की दो कविताएं
और रात आ जाती है
पर्वत की पीठ पर बैठा सूरज
स्थिर नहीं रहता।
लुढ़कता हुआ,
धार के पार चला जाता है।
केवल रक्तिम आभा-
क्षितिज पर ठहर जाती है।
पंक्तिबद्ध पेड़ गलबाहें डालें,
सुमनों को निहारते हुए,
अंधकार के आगोश में
समा जाते हैं।
और हिरनों का झुंड,
पानी पीने नदी के तट
चला आता है।
मृगतृष्णा बढती जाती है।
प्यास बुझती नहीं तब तलक,
जब मौत गळे लग जाती है।
और रात आ जाती है।
कयामत साथ लाती है।
तुम जीवन की वर्तुल धारा
तुम प्राणों में बसती हो, राज मेरे मन करती हो ,
प्राणवायु बन अंतस्थल में,जीने का हक देती हो।
खुशहोता मन देखकर, नजरें कभी ना हटती हैं,
तुम जीवन सुंदर दर्पण, चांद दूज सम बढ़ती हो।
नन्ही परी नव मल्लिका, नवल ओंस की बिंदु सदा।
तुम नाद प्रवाह समीर मन,अनुपम प्यारी शांत धरा।
धरती पर वरदान प्रभु का ,अंबर का प्रकाश महान,
तुम हिमगिरि की वर्तुल धारा, प्रकृति सम हरीतिमा।
तुम जीवन की निर्मल धारा,धरती पुत्री प्राण धरा।
जीवन पावन सांस देह में,तुम इठलाती भाव जहां।
तुम बिनमही प्राण शून्य थी,अंबर भी निष्क्रिय रहा,
नव जीवन तुम बसुंधरा का,कवि निशांत ने यही कहा।
कवि का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत ।
सुमन कॉलोनी चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।