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August 6, 2025

सत्ता की धमक, बदल जाते हैं अंदाज, फोन कॉल आते ही बोलने लगते हैं- राम नाम सत्य है

सच ही कहा जाता है कि सत्ता की धमक में नेताजी का अंदाज बदल जाता है। पहले तक लोगों के आगे वोट के लिए गिड़गिड़ाते फिरते थे, जब जीत जाएं तो उनके आगे गिड़गिड़ाने वालों की कतार लगने लगती है।

सच ही कहा जाता है कि सत्ता की धमक में नेताजी का अंदाज बदल जाता है। पहले तक लोगों के आगे वोट के लिए गिड़गिड़ाते फिरते थे, जब जीत जाएं तो उनके आगे गिड़गिड़ाने वालों की कतार लगने लगती है। नेताजी हैं कि पैर जमीन पर पड़ते नहीं सातवें आसामन में उड़ते रहते हैं। हरएक के दुखदर्द को दूर करने का फार्मूला भी उनके पास रहता है। साथ ही रहता है झूठ का पुलिंदा।
एक नेताजी राजनीति की सीढ़ियां चढ़ते हुए विधायक बने। प्रशंसकों से उनका पीछा नहीं छूट रहा था। पहले तो उन्हें अच्छा लगा, लेकिन रात के 12 बजे बधाई देने का क्या तुक है। ऐसे फोन से वह परेशान होने लगे। ऐसी काल से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने ज्यादा समय अपना फोन बंद रखना ही उचित रखा। अपने इस्तेमाल के लिए दूसरा नंबर ले लिया।
पहले नगर निगम के सभासद थे। फिर विधायक बने। संगी साथी पीछे छूट गए। एक पुराना दोस्त सभासद ही रह गया। वह भी विधायक से कम नहीं। विधायक की तरह सभासद महाशय भी लोगों को आश्वासन का पुलिंदा बांटते फिरते रहे। यदि काम हो गया तो श्रेय सभासद को जाएगा, यदि नहीं हुआ तो यह कहकर टाल दिया कोशिश की थी। क्या करूं बात बिगड़ गई।
एक चिपकू रामजी किसी काम से सभासद महोदय के पास गए। सभासद ने कहा काम हो जाएगा। बस मुझे याद दिलाते रहना। विधायक तो मेरा साथी है। वह भी मदद करेगा। सभासद कुछ ज्यादा ही बोल गए। चिपकू राम जी ने सभासद को काम की याद दिलाना अपना पहला कर्तव्य समझा। सुबह उठते ही सभासद को फोन, दोपहर को फोन, शाम को फोन।
बार बार फोन से सभासद भी परेशान हुए। कभी मीटिंग में हूं, कभी किसी के घर बैठा हूं। इस तरह के बहाने बनाने लगें। सच बोलने की शायद उनके पास हिम्मत नहीं थी कि काम होना मुश्किल है। अक्सर वह कोई ना कोई बहाना बनाकर फोन काट देते। उधर, चिपकूराम जी भी लगातार फोन कर याद दिलाना अपना धर्म समझ रहे थे। एक दिन तो सभासद ने हद कर दी। सभासद को जैसे ही फोन की काल आई, वह मौके पर साथियों से बोले- सभी सत्य है कहना। फिर काल रिसीव की और धीरे से बोले कोई मर गया। मैं शव यात्रा में हूं। साथ ही बोलने लगे- राम-नाम सत्य है। यह सुनकर उनके साथी भी यही बोलते रहे- सत्य है। सत बोलो गत…..।
खैर ये बात करीब दस साल पुरानी हो चुकी है। इस फार्मूले को अपने मित्र सभासद से लेकर विधायक जी भी कई बार अपनाने लगे। इसके बाद दो चुनाव आए। नतीजा, ये हुआ कि दोनों बार ही विधायकजी हार गए। वह विधायक से पूर्व विधायक हो गए। पूर्व विधायकजी को फोन ना उठाने की जो आदत लगी थी, वो लगातार कायम रही। इससे उनके अपने मित्र भी छिटक गए। लोगों ने यही कहा कि जब दोस्तों के नहीं हुए तो जनता के क्या होंगे। वहीं, पूर्व विधायकजी को पूरा विश्वास था कि एक बार चुनाव हारे, लेकिन दूसरी बार उनकी जीत तय है। क्योंकि अक्सर चुनाव में यही होता है। लोग बार बार विधायक को बदलते हैं। इसी ओवर कांफिडेंस में इस बार हुए विधानसभा चुनाव में पूर्व विधायकजी ने मतदान होते ही अपने नाम की पट्टिका में लिखे पूर्व विधायक से पूर्व शब्द हटा दिया था। पर उनकी दोबारा विधायक बनने की ख्वाहिश पूरी ना हो सकी। अब उन्हें फिर से पांच साल का इंतजार करना है। क्योंकि इस बार मतदाताओं ने ही बोल दिया था-राम नाम….
भानु बंगवाल

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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