श्रृंगार की बेड़ियाँ आभूषण, बनाव, श्रृंगार, सौंदर्य की बेड़ियों में जकड़ी करती मिथ्या परम्परा में विहार स्त्री! क्या तुम्हें दुःख...
कविता
कुल्हड़ की चाय की चुस्कियां माटी से जुड़ा रखती है। दुनिया के बदलते तौर तरीकों में भी उस कुम्हार की...
गूँज उठी रणभेरी काशी कब से खड़ी पुकार रही पत्रकार निज कर में कलम पकड़ो गंगा की आवाज़ हुई स्वच्छ...
इंसान क्यों डरा डरा सा क्यों वीरान सी लगती ये धरती, लगता शहर भी सुनसान सा। यही लगता खुदा नाराज...
हां हूं मैं मॉडर्न खयालो की पर जानती हूं मैं संस्कार भी, हां हूं मैं खुले विचारों वाली पर जानती...
छाले बेरोजगारी के हे पथिक! मत कर छालों की परवाह, आगे सफलता की मंजिल खड़ी है। दौड़ता जा कांटों भरी...
मैं आज भी जीवित हूं तो प्रभु तेरा ही रचा ये खेल है वरना कहां मैंने भरी आज तक इतनी...
एक छोटा सा शब्द जिसमे मेरी जान बसती है, रोते हुए भी मेने मुकुराया हे जब मेरी माँ हंसती है...
वेदना मेरे मन की एक वेदना है मेरे मन में, पुछूं तो पूछूं किससे। कौन कोरोना का हल्ला मचा रहा...
वो लड़का साहब, वो बाहर से मुस्कुराता है, वो खुश भी है, पर न जाने क्यों, उस मुस्कुराहट के पीछे...