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December 13, 2024

गर्मियों की छुट्टी, बच्चों की शरारत, मुसीबत की नहीं चिंता, ऐसे हो गया शहद का बंटवारा

गर्मियों में स्कूल की छुट्टी हो और बच्चों की शरारत के दिन ना हों। ये बात हो सकता है आजकल फिट नहीं बैठती हो, लेकिन आज से करीब 40 साल या फिर उससे भी पहले बच्चों के लिए गर्मियों की छुट्टियां शरारत भरी होती थी।

गर्मियों में स्कूल की छुट्टी हो और बच्चों की शरारत के दिन ना हों। ये बात हो सकता है आजकल फिट नहीं बैठती हो, लेकिन आज से करीब 40 साल या फिर उससे भी पहले बच्चों के लिए गर्मियों की छुट्टियां शरारत भरी होती थी। सुबह बच्चे घर से निकल जाते थे और दिन में सिर्फ भोजन करने ही घर पहुंचते। फिर दोपहर में दाल भात छककर दोबारा से बच्चे गायब। पूरे दिन भर मटर गश्ती। यदि घर के निकट जंगल हो या फिर बगीचा हो तो बच्चों की पौ बारह हो जाती। कारण ये था कि उन दिनों बगीचों में लीची भी पकने लगती है और आम भी। चकोतरे भी पीले होने लगते हैं। वहीं गलगल (नींबू की प्रजाति) आदि भी जीप को लपलपाती रहती।
चौकीदार की नजर से बचकर बच्चे पेड़ से लीची और आम साफ कर देते। यदि चौकीदार उस दिशा में आए तो बच्चे दौड़ लगाते और ऊंची डाल से सीधे जमीन में छलांग लगाते हुए ऐसे चौकड़ी भरते जैसे हिरन ने दौड़ लगाई हो। मजाल है कि कोई चौकीदार के हाथ पड़ जाए। तब न चोट लगने का डर और न ही किसी अनहोनी का ही डर रहता था। ऐसी शैतानियों में ही हमें मोजमस्ती नजर आती थी। ऐसा ही नजारा उस दौरान अमूमन मोहल्लों और गावों में होता था। अब समय बदला और मौहल्ले में बच्चे आपस में मिलने की बजाय अपने परिवार और नातेदारों के घर जाते हैं। घर के बाहर मौज मस्ती की बजाय मोबाइल में गेम खेलने में ही उनका समय बीत रहा है।
इस बीच दोपहर से लेकर शाम के समय बच्चों का समय खेल के मैदान या फिर खुले स्थान में भी बीतता। जहां गुल्ली डंडा, पिट्ठू, फुटबाल, क्रिकेट, वॉलीबाल आदि कोई भी खेल बच्चे खेलते थे। इस बीच कोई पतंग उड़ाता तो कोई पेड़ों में लटक कर काली डंडा आदि का खेल भी खेलता। तब लड़कियां भी पिट्ठू, गुल्ली डंडा, व लंगड़ी टांग वाला खेल को खेलते हुए अक्सर दिख जाती थी। अब इस बीच बच्चों की ऐसी शैतानियां भी सामने आती, जिसे याद करके अब हर कोई एक बार मन सिहर उठता है।
करीब चालीस साल पहले की बात होगी। देहरादून के राजपुर रोड स्थित एक मौहल्ले में जोगींदर, राजू और राजन की दोस्ती चर्चाओं में थी। तीनों करीब 14 साल के रहे होंगे। ये अन्य बच्चों के साथ खेलने की बजाय अलग ही अपनी प्लानिंग करते। कभी ये कुंग फू कराटे गेम की प्रैक्टिस करते तो कभी उदंड। वैसे तो इस ग्रुप में अन्य किशोर भी शामिल थे, लेकिन अस्कर ये तीन ही ज्यादातर समय साथ नजर आते थे।
इनमें जोगिंदर शहद का शौकीन था। वह दोस्तों के साथ दिन में आसपास के जंगलों में शहद के छत्ते तलाशता रहता था। एक दिन भरी दोपहरी में जोगिंदर और राजू और अन्य युवक शहद निकालने के लिए जंगल पहुंच गए। जंगल में छत्ता छेड़ते ही मक्खियां पीछे पड़ गई। सभी साथी तो भाग गए, लेकिन राजू मक्खियों के हमले की चपेट में आ गया। तब कहावत थी कि जब मक्खी पीछे पड़े तो जमीन पर लेट जाओ। शायद राजू ने ऐसा ही किया, लेकिन उसे उसे ढेर सारी मक्खियों ने काटा और वह जंगल में ही बेहोश हो गया।
इस बीच जंगल में दो पुलिस कर्मी डंडे के लिए बांस की तलाश में गए थे। वहां करीब 14 साल के युवक को देखकर उन्होंने सोचा कि किसी ने मार के फेंका हुआ है। इसी दौरान एक व्यक्ति जंगल में लकड़ी काट रहा था। उसने पुलिस कर्मियों को बताया कि यह तो पंडितजी का बेटा है। उसे कुछ लोगों की मदद से घर पहुंचाया गया। दो तीन दिन बिस्तर में वह पड़ा रहा। फिर सूजन कम होने से आंख जो बंद दिखाई देती थी, वो खुल गई। घर वालों ने राहत महसूस की। इस बीच सरकारी डिस्पेंसरी में इलाज भी चला। डॉक्टर ने सूजन और कम करने को इंजेस्शन भी लगाया और खाने को दवा भी दी।
ठीक होने के बाद राजू एक दिन फिर घर से गायब हो गया। माताजी को उसकी चिंता हुई। वह उसे तलाशने के लिए उसके एक एक दोस्त के घर जाती रही। वह सिख मित्र जोगिंदर के घर वह मिल गया। उसके घर जाकर राजू की माताजी ने जो नजारा देखा, तो वह भी घबरा गई। मित्र के घर उसकी उम्र के कुछ बच्चे आपस में शहद का बंटवारा कर रहे थे। यानि कुछ ही दिन पहले उसे शहद की मक्खियों ने काट खाया था। इसके बावजूद ठीक होने पर उसने छत्ते से दोबारा शहद निकालने की ठानी और निकाल भी लाया।

भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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