अंधविश्वास से लड़ता विज्ञान, तर्क के छोड़े जा रहे तीर, फिर भी नहीं उतर रही आंख से पट्टी, यहां तो लेख ने भगा दिया भूत
विश्वास और अंधविश्वास। इन सबके बीच विज्ञान। विज्ञान ही विश्वास है। जब से अंधविश्वास ने सिर उठाया तो विज्ञान ने भी उसके खिलाफ मोर्चा संभाला, लेकिन फिर भी लिखने और पढ़ने वाले अंधविश्वास को आसानी से ग्रहण करते हैं।

भूत, प्रेत, जादू, टोना, गंडे आदि के बारे में मैने बचपन से ही सुना था, लेकिन कभी भूत नहीं देखा। हां मेले में जादू अक्सर देखता था, लेकिन जल्द ही जादू मेरी पकड़ में आने लगा। सो मेरी दृष्टि में यह सिर्फ हाथ की ही सफाई थी। भूत के बारे में कई बार लोग किस्से सुनाते थे, लेकिन मैं उस पर यकीन नहीं करता था और आज भी नहीं करता हूं। वैसे भूत-प्रेत का जिक्र ऐसे स्थानों पर ही ज्यादा होता है, जहां जंगल हो, सुनसान हो, वीरान हो। पहाड़ों में तो व्यक्ति दो ही वस्तु से डरता है। उनमें एक बाघ है और दूसरा भूत। पहाड़ों में रात को सन्नाटे में जब हवा चलती है तो पेड़ की पत्तियों से भी आवाज आती है, तो लोग इस आवाज को भूत समझ बैठते हैं। रात को शिकार की तलाश में बाघ भी आबादी वाले इलाकों में विचरण करते हैं। ऐसे में कई बार तो लोग बाघ के चलने की सरसराहट को ही भूत समझ लेते हैं।
खैर मेरे घर का माहौल ऐसा रहा कि किसी भी बात को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते रहे। ऐसे में मेरे से बड़े भाई व बहन कोई भी भूत की बातों का विश्वास नहीं करता। अब रही भूत की बात। कई बार तो हमारे मीडिया से जुड़े लोग भी अंधविश्वास के किस्सों को बड़े चटपटे अंदाज से प्रस्तुत करते हैं। घटना की तह तक जाने का कोई प्रयास नहीं करता। इसी का परिणाम है कि वर्ष 94 में पूरे हिंदुस्तान में अचानक गणेश जी दूध पीने लगे। कई बार साईं बाबा की फोटो से दूध टपकने लगता है। साथ ही कई बार स्वाभाविक घटनाओं को चमत्कार के नजरिये से देखा जाता है।
ऐसी ही एक घटना मुझे याद है। ये घटना शायद वर्ष 1983 से 85 के बीच ही है। बिलकुल सही साल मुझे याद नहीं। देहरादून के गढ़ी कैंट क्षेत्र के अंतर्गत अनारवाला गांव में एक व्यक्ति के घर में भूत का वास होने की चर्चा पूरे शहर में आग की तरह फैलने लगी। सारे समाचार पत्र में उस घर में अचानक आग लगने की घटनाओं से रंगे जाने लगे। एक पुराने मकान में रिटायर्ड फौजी रहता था। उसके मकान में रखा सामान अचानक धूं-धूं करके जलने लगता। ऐसे में फौजी ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ घर से दूर एक पेड के नीचे शरण ले ली। घर का कीमती सामान पेड़ के नीचे रख दिया गया। कुछ हल्का फुल्का सामान घर पर ही छोड़ दिया। इस सामान में कभी भी आग लग जाती, लेकिन पेड़ के नीचे रखे सामान पर आग नहीं लगती। यहां तक कहा जाने लगा कि मकान में रात को पत्थरों की बरसात भी होती है। अनारवाला गांव में भूत वाले मकान को देखने के लिए दिन में लोगों का तांता लगने लगा था।
उस समय अमूमन सभी समाचार पत्रों ने मकान में भूत होने की घटना को बढ़ाचढ़ा कर प्रकाशित किया। तब मेरा बड़ा भाई राजू बंगवाल एक स्थानीय समाचार पत्र (दून दर्पण) में क्राइम रिपोर्टर था। वह भी घटना की तहकीकात करने गांव गया। वह कुछ दिन लगातार वह भूत वाले घर में गया। वहां उसने देखा कि मौके पर कोई भी मौजूद नहीं रहता और आग लग जाती है। आग से किसी व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचता। सिर्फ तार पर टंगे कपड़े या कोई वस्तु अचानक जल उठती।
इस आग लगने का कारण जानने के लिए मेरे भाई ने मेरी ग्याहरवीं की रसायन शास्त्र की किताब तक पढ़ डाली। फिर एक दिन आग के रहस्यों पर सवाल उठाते हुए समाचार पत्र में लेख प्रकाशित कर दिया। उस लेख में भवन स्वामी पर ही अंगुली उठाई गई। साथ ही यह भी बताया गया कि फौज में रहने के कारण भवन स्वामी को रसायनो के बारे में भी जानकारी है। लेख में स्पष्ट किया गया कि सफेद फास्फोरस आदि के घोल में भीगी वस्तु जब हवा के संपर्क में आती है तो उसमें अपने आप ही आग लग जाती है। इसी तरह अन्य रसायनों का भी आग लगाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
पूर्व फौजी के मकान में आग लगने के कारणो में यह समझाया गया कि मकान पुराना हो चुका है। ऐसे मे नया मकान बनाने के लिए कहीं वह ग्रामीणो की सहानुभूति तो नहीं चाहता। क्योंकि उस समय गांव के लोग चंदा एकत्र कर जरूरतमंद की मदद भी करते थे। समाचार पत्र में लेख छपने के बाद मकान में आग लगनी भी बंद हो गई। भवन स्वामी अपने परिवार के साथ उसी मकान में शिफ्ट कर गया, जहां भूत रहता था।
वर्तमान का भूत
वर्तमान में भी भूत फिर पैदा हो गया है। ये भूत महंगाई, बेरोजगारी, महंगी होती शिक्षा व्यवस्था और धर्म के नाम पर लोगों में नफरत फैलाने का है। सुबह से ही सोशल मीडिया में ऐसे संदेश भेजने वालों की कमी नहीं रहती, जो समाज में नफरत फैलाने में आग में घी देने के समान होती है। जाति, पाति, धर्म के आधार पर गालियां चलती हैं। इस भूत के निपटने वाले लोग कम ही हैं, लेकिन वे अपने तर्कों से लोगों को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि इन भटकाव वाली बातों से बचो। असल मुद्दों पर जाओ। विज्ञान को समझो।
विज्ञान कर रहा प्रहार
इन दिनो सोशल मीडिया में राम, हनुमान, अजान, हिजाब को लेकर विवाद छिड़ा है। हालांकि इसका आमजन को कोई लाभ नहीं पहुंचने वाला है। यदि भविष्य बेहतर बनाना है तो रोजगार के संसाधन बढ़ाने होंगे। विज्ञान के साथ आगे बढ़ना होगा। फिर भी विज्ञान को सही तरीके से समझाने वालों को पढ़ने को लोग तैयार नहीं हैं। बताया जाता है कि आस्था की कहानियों से अच्छा करने का प्रेरणा तो लो, लेकिन ऐसी बातों को विज्ञान की दृष्टि से देखो। जो सुनने में सच नहीं लगती हैं और हम सच मान बैठते हैं।
हनुमानजी की स्पीड को लेकर वैज्ञानिकों का तर्क
हनुमानजी की गति को लेकर भी वैज्ञानिकों ने तर्क दिया है। ये संदेश सोशल मीडिया में वायरल हो रहा है। इसे हूबहू वैसा ही लिखा जा रहा है। इसमें कहा गया कि हनुमान जी जब बचपन में छोटे थे तो सूर्य को फल समझकर निगल गए थे। सूर्य से पृथ्वी की दूरी- 149.6 Million km यानी कि 149600000 km है। इसी तरह श्री लंका से हिमालय की दूरी- 2400 km है और वापस आने जाने की दूरी-4800km है।
हनुमान जी जब बड़े थे तब वे एक रात में हिमालय से लंका तक पहाड़ उठा लाए थे, तो इस हिसाब से उनके उड़ने की स्पीड 4800÷12= 400km प्रति घंटा के हिसाब से हुई। जब हनुमान जी बच्चे थे तो 400 km प्रति घंटा की की स्पीड से उड़ते थे। मान लिया बच्चा बड़ों से कमजोर होता है तो बचपन में वे 300km के स्पीड से उड़ते होंगे। तो सूर्य की दूरी तय करने में लगा समय 149600000÷300=498666 घण्टे है। ऐसे में उन्हें इस दूरी को तय करने में 498666÷24=20777 दिन लगे। यानि कि 20777÷365= 57 साल लगे। ये दूरी भी एक तरफ जाने की है। यदि लौटने का वक्त जोड़ा जाए तो उन्हें जाने और वापस लौटने में 114 साल लगते हैं। अब कुछ प्रश्न उठते हैं यहां?
1- 114 साल बाद जब हनुमान जी वापस आए तो वो बड़े हो गए थे या बच्चे ही थे?
2- जब हनुमान जी ने सूर्य खाया तब अंधेरा सिर्फ भारत में ही हुआ था या पूरी पृथ्वी पर। अगर हां तो जापान, अमेरिका, ब्रिटेन में हनुमान जी को कोई क्यों नहीं जानता?
3- जब वो वापस पृथ्वी पर आए तो सभी लोग उतने ही बड़े थे या या उन सबकी उम्र 114 साल बढ़ चुकी थी..?
अब आप स्वयं से भी प्रश्न जोड़ लीजिए ।
विज्ञान अपनाओ
अंधविश्वास भगाओ।
(नोट यहां वैज्ञानिकों का तर्क उनकी पोस्ट के आधार पर दिया गया है, किसी की आस्था को ठेस पहुंचाने का हमारा उद्देश्य नहीं है। विज्ञान की नजर में जो लिखा गया उसे बताया गया है।)
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।