कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी की कविता- देखो जी! यह भी इक तारा

देखो जी ! यह भी इक तारा,
सौरमंडल का जलता तारा।
उगता है यह धार के ऊपर,
छिप जाता है धार के पीछे।
देखो जी ! यह भी इक तारा—
देता यह सबको जीवन सारा,
इसके बिना जग जीवन मारा।
ब्रह्मांड में यह नहीं होता तारा,
तो चढ़ता कैसे धरती का पारा।
देखो जी ! यह भी इक तारा—
इसको सूरज कहो या तारा,
इस पर जीवन चरखा सारा।
लाख करोड़ों अरबों नभ तारे,
सम्मुख इसके निस्तेज हैं सारे।
देखो जी ! यह भी इक तारा—
यह पर्वत के कोने पर उगता,
पर्वत के ही पीछे यह छिपता।
यह सागर तट पर भी उगता,
संध्या सागर मे ही यह डुबता।
देखो जी ! यह भी इक तारा—
यह क्षितिज पर प्रतिदिन आता,
छिपता सूरज नभ को भाता।
पर्वत पेड़ों की परछायी ऊपर
बाल सूर्य बिम्ब कोटि बनाता,
देखो जी ! यह भी इक तारा—
मेरे घर आंगन आने से पहले,
यह सुरकुट पर्वत रंग जमाता।
स्वर्ण -किरण संग हौले -हौले,
निशांत -द्वार पर दस्तक देता।
देखो जी ! यह भी इक तारा—
कवि का परिचय
कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी, निशांत सेवानिवृत शिक्षक हैं। वह नगर पालिका परिषद चंबा के स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर हैं। वर्तमान में वह सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में रहते हैं। वह वर्तमान के ज्वलंत विषयों पर कविता, लेख आदि के जरिये लोगों को जागरूक करते रहते हैं।
Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।