कवि सोमवारी लाल सकलानी की कविता-हो जाता है मन अधीर जब
हो जाता है मन अधीर जब
हो जाता है मन अधीर जब, मै वृक्षों को गिनता हूं।
बैठ पहाड़ के परकोटे पर, वन में मन बहलाता हूं।
भूल जाता हूं दुनियादारी, सैर हिम गिरी करता हूं।
मिल जाता जब चित्र पुराना,अतीत में खो जाता हूं।
हो जाता है मन अधीर जब—–
वन से सुंदर कुछ ना जीवन में,पर्वत से अच्छा प्यार नहीं।
कृषि से बढ़ कर कर्म न कोई, खग – मृग का दुलार यहीं।
गहरी घाटी – काली माटी, कंकर पत्थर शुचि संसार मही।
बचपन से सुंदर इस जीवन में, धरती अम्बर मे स्वर्ग नहीं।
हो जाता है मन अधीर जब —–
विचित्र बिम्ब चित्र मन में बसते, पर्वत की परछाई संग।
भूल जाता हूं दुख दैन्य दर्द सब,हो जाता मोह तब भंग।
मेरे प्रिय पर्वत परकोटे, प्रति पल ऊष्मा ताप बढ़ाते हैं।
और निकलती जल धाराएं, अमृत रस नित बरसाती है।
हो जाता है मन अधीर जब ——-
कहते हैं मेरे बचपन साथी सब,समतल धरती जाने को।
जहां सुलभ हैं साधन सारे, संघर्ष सदा है कुछ पाने को।
कविता ग्रंथ प्रकाशित करके तुम,कवि बड़े बन जाओगे।
बढ़ जाएगा मान शान सुख, ज्ञानी ज्ञांता भी कहलाओगे।
हो जाता है मन अधीर जब ——-
मै सदा ऊंचाई में रहने वाला, कैसे घाटी जा सकता हूं ?
पत्थर चट्टा कवि पहाड़ का, कैसे सोना खा सकता हूं ?
कविताएं तो वहां बन जाएंगी , किन्तु काव्य मर जाएगा !
और भाव रस प्यारा बचपन,वृद्धावस्था में भी दुतकारेगा ।
हो जाता है मन अधीर जब ——
रात बहुत हो गई है भाई , हिम – बिस्तर पर सो जाते हैं।
शीत बहुत है इस पहाड़ पर, पर ठंड काट नहीं खाती है।
जब अरुणोदय पर्वत पर होगा,तब पुन: जाग हम जाएंगे।
सपने मीठे अपने हिम पर्वत के, निशांत समय सुनाते है।
हो जाता है मन अधीर जब ——–
कवि का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।
सुमन कॉलोनी, चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।