युवा कवि प्रतीक झा की कविता- परमाणु छाया में मानवता
परमाणु छाया में मानवता
जब संसार हुआ विकट, स्वार्थ में लीन,
नैतिकता खो चुकी, मनुष्य हुआ अधीन।
पर्यावरण का संकट, था पहले एक डर,
अब मानवता पर छाया है विनाश का अंधेरा।
न बात अब प्रदूषण की, न नियमों की चाल,
अब तो है विनाशक हथियारों का सवाल।
परमाणु के साये में कांपता जग सारा,
कब आएगी वह घड़ी, जब मिलेगा सहारा? (कविता जारी, अगले पैरे में देखिए)
रसेल की पुकार थी, आइंस्टीन की चिन्ता,
ओपेनहाइमर की नैतिकता, नेहरू का सपना।
गांधी की अहिंसा ने सबको दिया ज्ञान,
परमाणु युद्ध से बचने का सिखाया सबक महान।
अब न करेंगे चर्चा उन समस्याओं की,
जो धीरे-धीरे लाईं विनाश की आहट।
परमाणु युद्ध का खतरा एक ही झटके में,
मानवता का कर देगा अंत। (कविता जारी, अगले पैरे में देखिए)
हमें चाहिए फिर से वही प्रेरणा,
वही एकजुटता, वही विश्वास।
मानवता का धर्म हो, आर्थिक लाभ से परे,
विश्व शांति की हो बात, यही हो हमारी राह।
चलो फिर से उठाएं वही पुराना मशाल,
परमाणु युद्ध के अंधकार को दें एक उज्ज्वल आधार।
तभी बचेगा पर्यावरण, तभी बचेगी सृष्टि,
मानवता का धर्म हो, हो जनकल्याण की दृष्टि।
कवि का परिचय
नाम- प्रतीक झा
जन्म स्थान- चन्दौली, उत्तर प्रदेश
शिक्षा- एमए (गोल्ड मेडलिस्ट)
शोध छात्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश।
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