बच्चे को मिले उनका पहले सा बचपन (बच्चों और उनके माता पिता के लिए प्रेरणादायक लेख)
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो काग़ज की कश्ती, वो बारिश का पानी…
महान गजल गायक जगजीत सिंह जी की ये गज़ल जिस बचपन को वापस माँगने की सूफियाना जिद्द कर रही है, शायद वो आज के बचपन पर बिल्कुल भी खरी नहीं उतर पा रही। जिस बचपन का अल्हड़पन कभी आवारगी तो कभी हिचकौले खाती पतंग सी बेतुकी हरकतों तो कभी बात-बात पर बिगड़कर बस एक डाँट में सब कुछ भुला देने तथा एक छोटी सी खुशी को पूरे गाँव मोहल्ले में फैला देने में दिखता था, आज वो कहीं खो गया है सचमुच।
बचपन को बचपने में ही जवान बनाने की इस वर्तमान समाज की साजिश। जो पहले सिर्फ एक नाकाम कोशिश होकर रह जाती थी, आज फलीभूत होती नजर आ रही है। बच्चों को बच्चा नहीं मशीन समझकर उसको इतनी जिम्मेदारियों का आदी बना दिया जाता है कि उसे फिर सिर्फ परिणाम ही परिणाम सताता रहता है। दिन-रात अनुभवों की नहीं, मस्तियों की नहीं, एक सुकूँ भरी जिंदगी नहीं बल्कि बस अपने परिणाम की चिंता रहती है। क्योंकि उसे सिखाया ही यही जाता है कि अगर तू आगे नहीं निकला तो कोई ओर निकल जाएगा और तू बस बैठा रहना, पछताते रहना, चिढ़ते रहना अपने आप से।
सच में हँसी आती है कभी कि जहाँ हमारा बचपन सिर्फ स्वालंबन शिक्षा के प्रयोग के लिए विद्यालयों में मिट्टी के मूँगे बनाकर माला गुँथने में, गारे का ट्रैक्टर और ट्रोली बनाने में, अंक लाने के लिए फटे पुराने कपड़ों के डस्टर बनाने में, बिछाने के लिए माँ से छोटी गिद्दी बनाने में, फिर विद्यालय में ही उस एसयूपीडब्ल्यू कैंप के अंतिम दिवस में पकौड़े, हलुवा, पूरी खाकर पेट पर हाथ फेरकर मस्ती मारने में निकल जाता था। फिर घरवालों द्वारा परिणाम का लोभ किए बगैर निस्वार्थ भाव से पेपर देकर प्रथम, द्वितीय तृतीय आने में और ये भी ना सही तो सप्लीमेंट्री नाम की एक ओर विलक्षण उपाधि मिलने पर भी हँसने खेलने में निकल जाता था। वहीं आज का समय उन अनुभवों को, उस हँसती-खेलती जिंदगी को निगल चुका है। अभी के बच्चों को तो शायद ये याद भी ना रहेगा कि सप्लीमेंट्री जैसी या ग्रेस मार्क्स जैसी भी भी कोई परंपरा हुआ करती थी क्योंकि मशीन या तो एक्यूरेट रिजल्ट दे सकती है या खराब हो जाती है। जो कि आज के बच्चे मेरिट ला लाकर बखूबी बयाँ कर रहे हैं।
हँसी तो कभी इस बात पर भी आती है कि कैसे कोई बच्चा हिंदी और सामाजिक विज्ञान जैसे विषय में शत्-प्रतिशत मार्क्स ले आता है क्योंकि हमने भी हिंदी और सामाजिक पढ़ी थी और कम से कम एक कोमा या फुलस्टॉप की भी गलती ना होना तो मेरे अनुसार सिर्फ भगवान के ही वश में है। खैर बात किसी की प्रतिभा पर सवाल करने की नहीं है, लेकिन जब वही मेरिट वाला बच्चा अपने देश के प्रधानमंत्री की स्पेलिंग भी गूगल बाबा पर ढूंढकर बड़ी मुश्किल से लिख पाता है स्वतः ही माँ शारदे की भी होठों से हँसी फूट पड़ती है।
फिर बात करें उनके खान पान की तो देखने को मिलता है कि जो पहले के वक्त में गली-सड़ी रोटियाँ कुत्ते को खिलाई जाती थी, आज उन्हीं को ब्रेड कहकर बचपन को भी आदी बना दिया जाता है। गिनाने बैठूँ तो फ़ास्ट फूड के नाम पर जिंदगी को स्लो करने वाले इतने फूड हैं कि दुनिया का मशहूर बावरची भी उनकी लिस्ट बनाने के लिए कम से कम एक हफ़्ते का समय मांगेगा।
काँधे पर किताबों का बोझ, आँखों में गुलाबी सपने,
बस रोबोट जैसे लगती है दुनिया, नज़र ना आते अपने,
ना कागज की कश्ती है, ना पयोदों में पानी है,
अंधेरे में बीत रहा बचपन, हाय दुनिया! ये कैसी नादानी है।
ऐसे में जब अपने आप के वजूद से जूझते बच्चों की जिंदगी के ट्रैक पर अचानक लाल झण्डी लिए बड़ा अंतराल किसी बड़ी आपदा ( यथा राजनीतिक सरगर्मियों का तेज हो जाना, चुनाव में विद्यालयों का निर्वाचन के लिए अलोट हो जाना, बीमारी आ जाए तो पांच-दस दिन का राजकीय अवकाश घोषित हो जाना, घर में पाले हुए शेरू उर्फ़ कालू उर्फ़ टॉमी उर्फ़….. कुत्ते का बीमार हो जाना या फ़िर विद्यालय के प्राचार्य जी का स्वर्ग से मिले हुए विशेष तोहफे के रूप में मनाली या शिमला या विदेश भ्रमण पर चले जाना) के आ जाने पर आ जाए तो क्या कहने!
सच में बच्चे की तो बल्ले-बल्ले हो जाती है साहब! क्योंकि आप सोचते हो कि बच्चा हमारी मानके कुछ तो करेगा ही, जबकि ऐसा होता नहीं है क्योंकि आपने उसके बचपन से लेकर आज तक उसे मशीन बनाने की जो कसम खाई थी उसकी वजह से अब वो सच में रजनीकांत जी की फिल्म का चिट्टी बन चुका होता है जो पूर्ण रूप से अनियंत्रित होकर बस अपनी मनमानियों में लग जाता है।
आखिर कितना रोक पाओगे उसे। वो अब हममें या तुममें से कोई नहीं रहा है अब वो सिर्फ “मैं” हो चुका होता है जिसका उद्देश्य सिर्फ़ मशीनी जिंदगी जीना बन जाता है। ना बुढ़ापे में माँ बाप की सेवा, ना संस्कार, ना अपना ना पराया । नतीजतन या तो उस मशीन को कोई मेनुफैक्चरिंग डेट और मटेरियल बताकर ट्रैक पर लाने की नाकाम कोशिशें करता है या फिर वो स्वयं इतना घिस जाता है कि स्वतः ही अमूर्त हो जाता है।
अंतरराष्ट्रीय बाल दिवस हो, या राष्ट्रीय बाल दिवस हो बात सिर्फ़ इतनी सी है कि बच्चों को स्वतंत्र बचपन नसीब करवाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारे सामने बच्चों को सिर्फ़ सफल बनाने की ही जिद्द नहीं हो बल्कि उस सफलता में उसकी वास्तविक खुशियों का भी मौल भी ढूंढना चाहिए। बचपन अमीर और गरीब, ऊँच नीच , जात पाँत, धर्म-अधर्म या आस्तिक-नास्तिक नहीं देखता, बचपन तो अपने आप में एक धर्म होता है जिसे हर बच्चा अपनाने का हकदार है, चाहे वो झोंपड़पट्टी में रहने वाला चिदानंद हो या उस गगनचुंबी ईमारत में रहने वाला चिंटू, चाहे वह शहर की लाल बत्ती पर खड़ी कारों के पास झंडे, छोटी गुड़िया बेचने वाली जुगनी हो या उस कार में बैठी जूही हो, हर एक बच्चे के लिए समान अधिकार हो, समान शिक्षा हो, समान पोषण हो तभी उज्जवल भविष्य के सपने साकार हो पाएँगे तभी ऐसे दिवसों का कोई अर्थ हम समझ पाएँगे।
लेखक का परिचय
युवा कवि व लेखक नेमीचंद मावरी “निमय ” समसामयिक ज्वलंत मुंद्दों व जिंदगी से जुड़ी समस्याओं पर कई पत्र पत्रिकाओं व ब्लॉग में कविताएँ व लेख लिख चुके है, तथा युवाओं के प्रेरणास्त्रोत के रूप में निरंतर लेखनरत हैं।
प्रकाशित पुस्तकें:- काव्य के फूल-2013
अनुरागिनी- एक प्रेमकाव्य-2020
स्वप्नमंजरी- साझा काव्य संग्रह संपादन- 2020
कोहरे की आगोशी में- प्रकाशनाधीन
निवासी- बूंदी, राजस्थान
FB page :- Thestarpoet ‘Nimay’
पढ़ने के लिए क्लिक करेंःअंतरराष्ट्रीय बाल दिवस पर पढ़िए डॉ. अतुल शर्मा की कविता-कूड़ा बीनने वाले
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।