पुस्तक समीक्षाः नागेंद्र सकलानी और मोलूराम भरदारी के संघर्ष का दस्तावेज है ‘मुखजात्रा’, नाटक के साथ जन इतिहास भी
11 जनवरी 1948 को जब आन्दोलनकारी राजधानी टिहरी कूच की तयारी कर रहे थे तब रियासत की नरेन्द्र नगर से भेजी गयी फौज ने कीर्तिनगर पर पुन: कब्ज़ा करने का प्रयास किया। कीर्तिनगर आजाद पंचायत की रक्षा के संघर्ष में कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलूराम भरदारी, शाही फौज के एक अधिकारी कर्नल डोभाल की गोलियों का शिकार बन गए। नागेंद्र सकलानी एवं मोलू भरदारी की शवयात्रा और टिहरी रियासत का भारत संघ में विलय की दास्तां को इस नाटक रूपांतरण में बखूबी वर्णित किया गया है।
नाटक ‘मुखजात्रा’ डॉ. सुनील कैंथोला की ओर से रचित दूसरा नाटक है। इससे पहले उन्होंने उत्तराखंड आंदोलन के दौरान नाटक ‘नई सड़क’ लिखा था। जिसके देहरादून तथा अन्य स्थानों पर कई सफल प्रदर्शन हुए। मुखजात्रा नाटक की प्रस्तावना में प्रसिद्ध इतिहासविद्व डॉ शेखर पाठक लिखते हैं-व्यवस्था द्वारा करवाई गयी हत्याएं शहादतों में तब्दील हो जाती हैं। यह इतिहास की सच्चाई है कि सत्ता सबसे ज्यादा अंधकार और अंधापन पैदा करती है। ताकि चीजें कभी संपूर्णता में न दिखें, जनता को अपने नायक न दिखें और न ही वह कोई सपने देख सके। चकाचौंध और झूठ मिलकर भी अंधकार पैदा करते हैं, जैसा की आज हो रहा है।
नाटक मुखजात्रा एक सच्ची और ऐतिहासिक घटना पर आधारित नाटक है। एक ऐसी ऐतिहासिक घटना जिसके विषय में देश – विदेश के लोग तो क्या, खुद उत्तराखंड के लोग भी भली भांति नहीं जानते। 15 जनवरी 1948 को रियासत टिहरी की फौज और प्रशासन ने प्रजामण्डल के नेतृत्व के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके उपरांत 1 अगस्त 1949 को रियासत टिहरी का भारत संघ में संवैधानिक विलय संपन्न हुआ। लगभग डेड बरस तक टिहरी रियासत का शासन आजाद पंचायत के हाथों में रहा। विश्व इतिहास में यह अनूठी घटना है। नाटक के केंद्र में नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी हैं।
परन्तु परोक्ष रूप से इसकी परिधि में रियासत टिहरी के जन आंदोलन का पूरा स्पंदित दौर मौजूद है। नाटक पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत इतनी बलवती हो गयी कि उनकी शवयात्रा जिस भी रास्ते से गुजरी वहां राजशाही हथियार डालती चली गयी।
यह विश्व इतिहास की ऐसी घटना है जिसमें शवयात्रा के चलते सफल जान क्रांति हो गयी और वह भी पूर्णतः अहिंसा के रास्ते पर बढ़ते हुए। नाटक मुखजात्रा एक तथ्यपरक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। नाटक से पहले लेखक ने दो अध्याय लिखे हैं ‘जो मैं समझा’ और ‘जैसे मैंने देखा’, इनको पढ़ने के बाद आप नाटक तक पहुँचते हैं। नाटक को पढ़ने के दौरान आपके मन-मस्तिष्क में स्वयं ही चित्र बनने शुरू हो जाते हैं जो आपको उन परिस्थितियों का अनुभव करवाते हैं। जो रियासत के शोषण और दमन के खिलाफ पहले ढंडकों और फिर आज़ादी के आंदोलन के रूप में प्रकट होती हैं।
कुछ क्षणों के लिए आप उसी क्रांति का हिस्सा बन जाते हैं, यही इस नाटक की विशेषता है। लेखक द्वारा नाटक लिखने से पूर्व ऐतिहासिक तथ्यों की पूरी जांच परख की गयी है। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों व अन्य उपलब्ध का अध्ययन किया गया है तथा इतिहासकारों से इस विषय पर औपचारिक विचार – विमर्श किया गया है। इसके प्रमाण सन्दर्भ स्त्रोत सामग्री की सूची के रूप में पुस्तक में मौजूद है। पुस्तक के अंत में नागेंद्र सकलानी के इस घटनाक्रम से सम्बंधित अप्रकाशित पत्र एवं चित्र दिए गए हैं। नाटक के रचना विधान में पूरी सच्चाई तथा ईमानदारी का भाव निहित है।
नाटक का अभिप्राय केवल प्रकाशन नहीं होता, नाटक का मंचन तथा दर्शकों तक इसका पहुंचना आवश्यक होता है। बिना दर्शकों के नाटक हमेशा अपूर्ण माना गया है, मुख जात्रा के मंचन की असीम संभावनाएं हैं। नाटक के शिल्प का गठन कुछ इस तरह से किया गया है कि इसे मंच तथा नुक्कड़, दोनों तरह से मंचित किया जा सकता है। नाटक में नीरसता को समाप्त करने के लिए गीतों तथा कविताओं को शामिल किया गया है, कुछ गीत गढ़वाली भाषा में हैं जिससे आंचलिकता का भाव पुष्ट होता है।
कैंथोला जी रंगकर्मी हैं, अभिनय, निर्देशन तथा रंगमंच की सीमाओं से भलीभांति परिचित होने के कारण उन्होंने इसके मंचन को ध्यान में रखते हुए सभी संभावनाओं पर विचार कर नाटक का शिल्प तैयार किया है। केवल दो पात्रों के माध्यम से दास्तानगोई की शैली में भी नाटक खेला जा सकता है। मुखजात्रा गढ़वाल के लोक इतिहास का वह गौरवमयी अध्याय है जिसे जनता तक पहुँचाने की जिम्मेवारी रंगकर्मियों की बनती है।
मुख जात्रा 116 पन्नों का दस्तावेज़ है, जिसे लेखक ने बंगलौर की रंगकर्मी स्नेहलता रेड्डी को समर्पित किया है। जिन्हे आपातकाल के दौरान जेल में यातनाएं दी गयी जो उनकी असमय मृत्यु का कारण बनी। पुस्तक का मुल्य डाक व्यय सहित 210 रूपया है यह अमेज़न पर Mukh Jatra के नाम से उपलब्ध है।
मुखजात्रा के लेखक का परिचय
नाम-सुनील कैंथोला
लेखक सुनील कैंथोला मनोवैज्ञानिक हैं। वह राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान देहरादून (तत्कालीक नाम) में कई शोध कर चुके हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उत्तराखंड सांस्कृतिक मोर्चा के गठन में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। वर्तमान में वह इको टूरिज्म के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इस क्षेत्र में कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं उन्हें पुरस्कृत भी कर चुकी हैं। सुनील कैंथोला रंगकर्मी और साहित्यकार भी हैं। वह वर्तमान में देहरादून के बसंत विहार में रहते हैं। उन्होंने उत्तराखंड आंदोलन के दौरान नाटक ‘नई सड़क’ लिखा था। जिसके देहरादून तथा अन्य स्थानों पर कई सफल प्रदर्शन हुए।
समीक्षक का परिचय
नाम-गजेंद्र वर्मा
गजेंद्र वर्मा देहरादून में रंगकर्म के क्षेत्र में एक जाना माना नाम है। नाट्य संस्था वातायन के संस्थापक हैं। वह सर्वे आफ इंडिया से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वह सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहते हैं। वर्तमान में वह उत्तराखंड के देहरादून में कालीदार रोड पर निवास कर रहे हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।