डॉ. सोमेश बहुगुणा की हिंदी कविता: है घड़ी संघर्ष की, कुछ बड़े उत्कर्ष की
है घड़ी संघर्ष की, कुछ बड़े उत्कर्ष की।
अज्ञात फल की चाह में हर्ष की अवमर्श की।।
कपोल कल्पनाओं पर, स्वपन सजा रहे अनेक।
मगर डगर है ये कठिन, कठिन है रात एक एक।।
कभी समीप फल दिखे, कभी हुए उदास हैं।
कभी हैं भूखे पेट हम, कभी सभी ही पास हैं।।
धरा को खोद खोदकर, फसल को ढूंढना पड़ा।
मगर अभी भी राह में, है काल व्याल बन खड़ा।।
चलो कभी तो आएगी, घड़ी कोई निष्कर्ष की।
अज्ञात फल की चाह में, हर्ष की अवमर्श की।।
तिमिर की ओट में छिपा, छिपा कहीं प्रकाश है।
मगर भुजाओं पर हमें,अभी आश है विश्वास है।।
मगर ये लेखनी की स्याह, उबाल मारने ने लगी।
ये तो काव्य के भी आड़ में, सवाल पूछने लगी।।
अगर है कर्ण पर नहीं, कोई जाति का निशान है।
तो दास होना क्या सदी, यूँ ही बड़ा आसान है?
आ गयी घड़ी ये है, किसी बड़े विमर्श की।
अज्ञात फल की चाह में हर्ष की अवमर्श की।।
सुरों को साधते हुए, गले को रुंधना पड़ा।
बह रहे जुनून को, रगों में ढूंढना पड़ा।।
हुआ कभी कमाल पर, कभी बड़ा बवाल था।
मैं चल रहा सम्भाल कर, कोई नया सवाल था।।
हुआ कभी जो समाना, तो पूछना जरूर है।
गरीब हूँ जो धन से मैं, यही मेरा कसूर है?
चलो मैं गाऊँगा कभी, कथा जो ये संघर्ष की।।
अज्ञात फल की चाह में, हर्ष की अवमर्श की।।
रचनाकार का परिचय
डॉ. सोमेश बहुगुणा
पीएचडी (संस्कृत साहित्य)
उत्तरकाशी, उत्तराखंड
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।