पुस्तक समीक्षा- ‘शहर में कर्फ्यू’, दंगो में हर बार मरता कौन है, कर्फ्यू के कड़ुवे सच को उजागकर करता विभूति नारायण राय का उपन्यास
तीन दिन पहले पुरानी पुस्तकों की सफाई कर रहा था तो अचानक एक 111 पेज के उपन्यास पर मेरी नजर पड़ी। ‘शहर में कर्फ्यू’ शीर्षक वाले इस उपन्यास को विभू्ति नारायण राय ने लिखा था। जो कि आठवां संस्करण था और वर्ष 2202 का था। उपन्यास की कहानी पढ़ने से पहले मैं पहले पेज में उपन्यास के बारे में पढ़ने लगा। पुस्तकों की सफाई भूल गया और किताब की एक एक पंक्ति को जैसे ही पढ़ता मेरी दिलचस्पी और बढ़ती चली गई। विभूति नारायण राय भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रह चुके हैं। सहज भाषा और रचनात्मक बेचैनी ने इस उपन्यास को उन्होंने सांप्रदायिक जुनून में निरंतर बौने होते जा रहे इंसानी कद के खिलाफ एक अप्रतिम दस्तावेज बना दिया। उपन्यास में जो कई साल पहले लिखा गया था, वह आज भी नजर आता है। पूरे देश में चिंताजनक हद तक बढ़े हिंदू फासिज्म, मुस्लिम कट्टरपंथ और इनकी टकराहटों के बीच पुलिस, प्रशासन, पत्रकारिता, व्यावसायिकता एवं राजनीति की भूमिका की काफी समझदारी से उपन्यास पड़ताल करता नजर आता है। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
उपन्यास में क्या लिखा है, इस पर ज्यादा नहीं जाऊंगा, लेकिन लेखक की ओर से लिखे गए शहर के कर्फ्यू के बारे में जरूर बात की जा सकती है। कहानी इलाहाबाद में उस दौर के दंगों की है, जब वहां हर दूसरे और तीसरे साल दंगा होना आम बात थी। जो वर्तमान में शाहरुख खान की फिल्म पठान के साथ हो रहा है, वही इस उपन्यास के साथ भी हुआ। हिंदुत्व के पुरोधाओं ने इसे हिंदू विरोधी और पूर्वाग्रह ग्रस्त उपन्यास घोषित कर दिया। इसकी प्रतियां जलाई गई। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
दंगों का सच
लेखक ने अपनी बात रखते हुए कहा कि भारत में सांप्रयादिक दंगों को लेकर दो प्रमुख समुदायों में हिंदुओं और मुसलमानों के अपने अपने पूर्वाग्रह हैं। एक औसत हिंदू दंगों के संबंध में मानकर चलता है कि दंगे मुसलमान शुरू करते हैं। दंगों में अधिक हिंदू मारे जाते हैं। हिंदू अधिक इसलिए मारे जाते हैं क्योंकि उनके अनुसार मुसलमान क्रूर, हिंसक और धर्मोंन्मादी होते हैं। साथ ही वह मानता है कि हिंदू धर्म भीरु, उदार, सहिष्णु होते हैं। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
आखिर मरता कौन है
लेखक का मानना है कि दंगा कौन शुरू करता है, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन मरता कौन है इस पर सरकारी और गैर सरकारी आंकड़ें प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हैं। इन आंकड़ों से बगैर किसी संशय के निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार स्वतंत्रता के बाद दंगों से मरने वालों में 70 फीसद से अधिक मुसलमान हैं। रांची-हटिया (1970), अहमदाबाद (1969), भिवंडी (1970), जलगांव (1970) और मुंबई (1992-93) या रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के सिलसिले में हुए दंगों में यह संख्या 90 फीसद से ऊपर चली गई। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
संपत्ति की हानि भी इन्हीं की ज्यादा
लेखक आगे बताते हैं कि दंगों में ना सिर्फ मुसलमान अधिक मारे गए हैं, बल्कि उन्हीं को संपत्ति का अधिक नुकसान हुआ। इस नुकसान को उठाने के साथ ही उन्हें राज्य मशीनरी की कार्रवाई भी झेलनी पड़ी और वे घाटे में आ गए। पुलिस का कहर भी उन्हीं पर टूटता है। जिन दंगों में 70 से 80 फीसद मुसलमान मरे और पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया, उनमें भी 70 से 80 फीसद ये ही लोग थे। उन्हीं के घरों में तलाशियां ली गई। औरतें बेइज्जत हुई। उन्हीं के मोहल्लों में सख्त कर्फ्यू लगा। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
दंगा शुरू होने के बाद से कर्फ्यू की त्रास्दी झेलने की कहानी
उपन्यास में दंगा शुरू होने के साथ ही कर्फ्यू की त्रास्दी झेलने की कहानी है। कर्फ्यू में भी सिर्फ मुस्लिम मोहल्लों में ही अत्याचार की कहानी है। बीमारी से बच्ची की मौत के बाद परिवार को उसके शव को दफन करने की चिंता है। गरीब को खत्म हो रहे राशन की चिंता है। मुस्लिम बाहुल्य इलाके को पाकिस्तानी इलाका घोषित कर दिया गया और वहां के लोगों को बहू बेटियों की इज्जत बचाने की चिंता है। पत्रकारों को रिपोर्टिंग की कम और अपनी कालोनी बनाने की चिंता है। वहीं, मौजूदा विधायक को दंगे के बाद अपनी कुर्सी खिसकने की चिंता है। पूर्व विधायक को दोबारा कुर्सी मिलने की उम्मीद है। व्यापारी को ये चिंता है कि किस तरह वह महंगा सामान बेचकर दंगे जैसी आपदा को अवसर में बदले। इतिहास बोध प्रकाशन ने इस उपन्यास को प्रकाशित कियाहै। (जारी, अगले पैरे में देखिए)
भानु बंगवाल
जन्म-28 नवंबर 1951 (जौनपुर, उत्तर प्रदेश)
शिक्षा-वाराणसी और इलाहाबाद से शिक्षा पूरी की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एमए किया और 1975 में भारतीय पुलिस सेवा में गए। उन्होंने इलाहाबाद से संबंधित युवा कवियों के संकलन प्रारूप का संपादन किया। हिंदी साहित्य की अग्रणी पत्रिका वर्तमान साहित्य का संपादन और प्रकाशन किया।
कृतियां
घर (उपन्यास), शहर में कर्फ्यू (उपन्यास), किस्सा लोकतंत्र का (उपन्यास), तबादला (उपन्यास), एक छात्र नेता का रोजनामचा (व्यंग्य संग्रह), समकालीन हिंदी कहानियां (संपादन), सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस।
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
भानु बंगवाल
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।