जंगल में छोड़ने पर सरकस के शेर की व्यथा पर लिखी गई मुकुन्द नीलकण्ठ जोशी की कविता
मैं सरकस का सिंह रहा सुखमय मम जीवन।
मिला किंतु अब बड़ा कठिन ही है यह कानन।।
बिना कष्ट था भोजन मिलता सदा समय पर।
जाना ही पड़ता है मुझको अब शिकार पर।।
तब राजा मैं लगे हुए सेवा में चाकर।
अपना दुखड़ा किसे सुनाऊँ अब मैं गा कर।।
काम वहाँ था केवल बस ‘शो’ में जाने का।
बैठ स्टूल पर इधर उधर बस गुर्राने का।।
या कि कभी रस्सी पर चलना जरा उछलना।
अथवा जलते चक्र बीच से पार निकलना।।
बाकी सारा समय मस्त खर्राटें भरना।
इतना सुखमय जीवन पाया था क्या कहना।।
डाल दिया इस बियावान में अब मरने को।
पागल सा हो गया नहीं है कुछ करने को।।
हिरन सामने भगते जाते हम बस तकते।
पीछा करना बड़ा कठिन है काँटे चुभते।।
मरे माँस को खाते खाते अब यह हालत।
जिंदा माँस पचाने की आयी है शामत।।
सरकस वाले ही पहले सब खयाल रखते थे।
वही व्यवस्था सदा सिंहिनी की भी तो करते थे।।
यहाँ बड़ा ही कठिन हो गया एक सिंहिनी पाना।
किसी सिंह से पहले लड़ना और हरा पाना।।
रग रग में नस नस में जिसके पारतन्त्र्यता बसती।
स्वतन्त्रता तो उसको समझो नागिन सी है डसती।
स्वतन्त्रता का सच्चा सुख यदि चाहे कोई पाना।
आवश्यक उसका है निश्चित मन का स्वतन्त्र होना।।
मन के हारे हार सदा है मन जीते तो जीता।
सुखभोगी मन सदा मरा है रहता ही है रीता।।
कवि का परिचय
नाम: मुकुन्द नीलकण्ठ जोशी
शिक्षा: एम.एससी., भूविज्ञान (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय), पीएचडी. (हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय)
व्यावसायिक कार्य: डीबीएस. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, देहरादून में भूविज्ञान अध्यापन।
मेल— mukund13joshi@rediffmail.com
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
जोशी जी की शेर पर लिखी रचना बहुत अच्छी लगी, सच ही है जब बैठ कर खाने की आदत पड़ जाये तो मेहनत करना किसे अच्छा लगता है.
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