पलायन के दर्द को उकेरती हुई गढ़वाली कविता, रचनाकारः डॉ. महेंद्रपाल सिंह
चल अपना गों जोला वखी रोला वखी खोला
चल अपना गों जोला वखी रोला वखी खोला
हिंसर , काफल वख बांझ कु जड़ियों कु पाणी , ऐजा ऐजा माँ छन बुलाणि
बद्रि केदार वख , गंगा यमुना कु मेत नन्दा राजजात वख भड़ु कि भड़ैत ,
फिर किले होटलू का भांडा मठोला
चल अपना गों जोला वखी रोला वखी खोला ………………..
दुनिया का सेड़ा मुलुक पहाड़ी , आज छिन अगाडि ,
तू किले छिन पिछाड़ी ?
हे उत्तरखंडी पहाड़ी
विधाता न बरी आस करी त्वे ते पहाड़ी होलु बनाई
पर मि भूली ग्याई ,
वखी रै कि अब स्वर्ग जन जीवन बीतोला रे बीतोला
चल अपना गों जोला वखी रोला वखी खोला ……………………
न पी तू डोबबू कु दूध , बोतल्यों कु पानी , जहर छिन वै माँ छिन बतानी
धो लगे कि छन भटयानी , ओला रे ओला , यखी रोला , यखी खोला ……………………
चल अपना गों जोला वखी रोला वखी खोला………..
रचनाकार का परिचय
नाम -डॉ. महेंद्र पाल सिंह परमार ( महेन)
शिक्षा- एम0एससी, डीफिल (वनस्पति विज्ञान)
संप्रति-सहायक प्राध्यापक ( राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय उत्तरकाशी)
पता- ग्राम गेंवला (बरसाली), पोस्ट-रतुरी सेरा, जिला –उत्तरकाशी-249193 (उत्तराखंड)
मेल –mahen2004@rediffmail.com
मोबाइल नंबर- 9412076138, 9997976402 ।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।