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December 12, 2024

जब भी नाखून काटने बैठता हूं तो याद आ जाता है ये फिल्म अभिनेता, जो शालीनता का था खजाना

एक फिल्म अभिनेता और मेरा संबंध तबसे बना जब वह फिल्मों और टीवी सीरियलों में अभिनय छोड़ चुके थे। जब भी मैं नाखून काटने बैठता हूं तो उस अभिनेता का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूमने लगता है।

एक फिल्म अभिनेता और मेरा संबंध तबसे बना जब वह फिल्मों और टीवी सीरियलों में अभिनय छोड़ चुके थे। उनका शालीनता भरा व्यवहार मुझे आकर्षित करता था। आज वह अभिनेता इस दुनिया में नहीं है, लेकिन एक नेल कटर की वजह से वह मुझे अक्सर याद आ जाते हैं। जब भी मैं नाखून काटने बैठता हूं तो उस अभिनेता का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूमने लगता है।
जब छोटा था तो वर्ष 79 में एक हिंदी पिक्चर रिलीज हुई। पिक्चर का नाम था शादी से पहले। यह पिक्चर मैने इसलिए देखी कि इसके निर्माता निर्देशक देहरादून के करुणेश ठाकुर थे और अभिनेता भी देहरादून का युवा प्रवीन सूद था। यह पिक्चर देहरादून के अलावा शायद कहीं और नहीं चली, लेकिन मुझे इसलिए अच्छी लगी कि पहली बार देहरादून के किसी युवक ने बतौर अभिनेता बॉलीबुड में दस्तक दी। इससे पहले देहरादून के केएन सिंह निर्देशन के साथ ही विलेन के रूप में, करुणेश ठाकुर निर्देशक के रूप में बॉलीवुड में पांव जमा चुके थे। गढ़वाली गायक जीत सिंह नेगी भी आरके स्टूडियो समेत कई अन्य स्थानों पर अपनी प्रतिभा का लोहा मना रहे थे।
प्रवीन सूद का फिल्मों का सफर फिल्म- शादी से पहले, से शुरू हुआ और इसके बाद उन्होंने महेश भट्ट की फिल्म नाम, भारत रंगाचार्य की फिल्म जमीन आसमान, रघुनाथ की फिल्म बिस्तर के साथ ही फर्ज की जंग, अनुभव, कर्मयुद्ध, सवेरे वाली गाड़ी में छोटी-बड़ी भूमिका निभाई। पंजाबी, भौजपुरी फिल्मों में अभिनय के अलावा उन्होंने गढ़वाली फिल्मों में भी बतौर निर्देशक काम किया। करीब 30 साल पहले दूरदर्शन के धारावाहिक सुबह में उन्होंने डॉक्टर का अभिनय कर फिर टीवी सीरियलों में भी अपनी पहचान भी बनाई और अभिनय की गहरी छाप भी छोड़ी।
जब टीवी चैनल बढ़ने वले और सीरियल का दौर तेज होने लगा, तब वह मुंबई से सामान समेट कर देहरादून वापस आ गए। परिवार देहरादून रहता था ऐसे में उन्होंने देहरादून वापस आने में ही परिवार की भलाई समझी। बचपन से ही मैं प्रवीन सूद को देखता था। किसी विवाह में आमंत्रण पर जब वह पहुंचते तो लोग उनसे किसी गीत पर डांस करने के लिए कहते। तब अक्सर वह-डम डम डिगा-डिगा, पर नृत्य करते।
बाद में प्रवीन सूद देहरादून में घंटाघर के पास कैलाश इलेक्ट्रीकल नाम से दुकान चलाने लगे। एक समय ऐसा था जब देहरादून में श्रमजीवी पत्रकार संघ हर साल होली में अजूबा नाम से सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करता था। तब अक्सर मंच संचालन के लिए प्रवीन सूद को ही आमंत्रित किया जाता था। किसी राशि की डिमांड किए बगैर ही अक्सर हरएक के कार्यक्रम में पहुंचना उनकी आदत में शुमार था।
सप्ताह में एक बार मेरा प्रवीन की दुकान का चक्कर अक्सर लग जाया करता था। इसका कारण यह था कि मैं अपने एक मित्र की दुकान में अक्सर जरूर जाता हूं। समीप ही प्रवीन की दुकान थी। मैं पांच सौ व हजार के नोट (तब नोटबंदी नहीं हुई थी और हजार का नोट प्रचलन में था) के छुट्टे कराने प्रवीन के पास ही जाता था। चाहे दुकान से सामान न खरीदूं, लेकिन वह छुट्टे देने में कभी मना नहीं करते थे। दुकान में आने वाले ग्राहकों को भी शायद यह पता नहीं रहता कि गल्ले पर बैठा यह वो व्यक्ति है, जिसके ऑटोग्राफ लेने के लिए पहले कभी दून के युवाओं में होड़ रहती थी।
सहृदय, शालीनता से बात करना, दूसरों के सुख-दुख का ख्याल रखना उनका व्यक्तित्व था। मुझसे वह अक्सर बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है, यही सवाल पूछते। कभी-कभार में उनकी दुकान से जरूरत का सामान भी खरीद लेता था। कई बार मेरे साथ बच्चे भी होते। एक दिन मैं उनकी दुकान में गया और मैने कहा कि एक नेल कटर दे दो। मैने उन्हें बताया कि अक्सर नेल कटर खराब हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा एक या दो साल ही चलता है। इस पर उन्होंने कहा कि अबकी बार ऐसा नेल कटर दूंगा, जो कभी खराब हो जाएगा। हम रहें या ना रहें, लेकिन ये चलता जाएगा। तब उन्होंने नेलकटर दिया, जिसकी कीमत साधारण नेलकटर से करीब 40 रुपये ज्यादा थी। तब साधारण नेलकटर करीब 20 रुपये में आ जाता था।
मार्च 2012 में एक दिन मैं उनकी दुकान पर गया, लेकिन वहां प्रवीन के बेटे से मुलाकात हुई। तब उसने बताया कि पापा की तबीयत खराब है, लुधियाना में बड़े भाई के पास हैं और वहीं इलाज भी करा रहे हैं। 16 अप्रैल 2012 की दोपहर के समय मैं दुकान में गया तो वहां प्रवीन सूद की फोटो लगी हुई थी। उसमें माला टंगी थी। अचानक फोटो देख मैं माजरा तो समझ गया, लेकिन फिर भी उनके बेटे से यही पूछा कि क्या हुआ। उसने बताया कि पिताजी के गुजरे तीन दिन बीत चुके हैं। कई साल से गुमनामी के अंधेरे में जी रहे इस अभिनेता ने जब इस दुनियां को अलविदा कहा तो इसका भी समय पर लोगों को पता नहीं चला।
हालांकि, उनकी मौत के बाद बेटे ने दुकान बेच दी। किसी दूसरी जगह उसने दुकान खोल ली। तब से उनके बेटे से भी मेरी मुकालात नहीं हुई। इसके बावजूद प्रवीन की यादें आज भी मेरे जेहन में जिंदा हैं। अब जब भी मैं नेल कटर लेकर नाखून काटना शुरू करता हूं, तो प्रवीन सूद का चेहरा मेरी आंखों में घूमने लगता है। साथ ही ये शब्द भी मेरे कानों में गूंजते हैं-हम रहें या ना रहें, ये नेल कटर चलता रहेगा।
भानु बंगवाल

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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