बाल कवयित्री दीपिका की दो कविताएं
बिकाऊ
चाँद पर भी बिकने लगा है जमाना,
डर लगता है कि सूरज की तपन बिक ना जाये।
हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ निति,
डर है कि कहीं धर्म बिक न जाये।
देकर दहेज खरीदा अब दूल्हे को,
कही उसी के हाथो दुल्हन बिक न।
जाये, हर काम की रिश्र्वत ले रहे नेता,
कही इन्ही के हाथो वतन बिक न जाये।
सरेआम बिकने लगे अब तो संसद,
डर है कि कहीं संसद भवन बिक न जाये।
आदमी मरा तो भी आँखे खुली हुई है,
डरता है मुद्दा , कही कफन बिक न जाये।
मा की छाँव ।
धुटनो से रेंगते रेंगते,
कब पैरो पर खड़ा हुआ ।
तेरी ममता की छाँव में ,
जाने कब मे बडा हुआ।
काला टीका दूध मलाई ,
आज भी सब कुछ वैसा है।
मै ही हूँ मैं सब जगह,
प्यार ये तेरा कैसा है।
सीधा सादा भोला भाला,
मै ही सीधा सादा हूँ।
कितना भी हो जाऊँ बडा,
मा! मैं तैराआज भी बच्चा हूँ।
कवयित्री का परिचय
कु. दीपिका
कक्षा -7
राजकीय पूर्व माध्यमिक, विद्यालय डोईवाला देहरादून।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।