लेखक, कवि, चिंतक प्रदीप मलासी की दो कविता- पत्थर की अभिलाषा और व्यथा
पत्थर की अभिलाषा
चाह नहीं नव निर्माण के..
शिलान्यास में रखा जाऊं!
चाह नहीं देवालय में रख कर..
हरि संग मैं पूजा जाऊं!
चाह नहीं मील पत्थर बन..
थके पथिकों में जोश जगाऊं!
बस तुम मुझे..
उस मुंड पर देना फेंक..
जिसमें राष्ट्रद्रोह के..
पनप रहे हों विचार अनेक!
व्यथा
देवभूमि की धरती पर..
मदिरा के बहते नित नाले हैं।
टूटे खंडहर की किवाड़ों पर..
लटके बड़े से ताले हैं।
निज स्वार्थ खातिर तुमने..
सौदे बड़े कर डाले हैं।
जिन स्तंभों पर ये राज्य बना..
“दीमकों” ने वो कुतर डाले हैं।
राज्य अश्रु नयनों से देख रहा..
खेल “तुम्हारे” अजब निराले हैं।
हताश युवाओं की आंखों को..
कितने सब्जबाग दिखा डाले हैं।
जिस प्रजा ने मुकुट पहनाया..
उनके हाथों में अब छाले हैं।
पल पल तड़पती देह को ताक रहे..
मंडराते “गरुड़” ये काले हैं।
लेखक का परिचय
प्रदीप मलासी
शिक्षक, राजकीय प्राथमिक विद्यालय बुरांसिधार घाट, जिला चमोली।
मूल निवासी- श्रीकोट मायापुर चमोली गढ़वाल, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
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