साहित्य में बाजारवाद के विरोधी रहे त्रिलोचन शास्त्री, किया प्रयोगधर्मिता का समर्थन (पुण्य तिथि पर विशेष)
हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा के प्रमुख हस्ताक्षरों में शुमार त्रिलोचन शास्त्री वआधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे। इस त्रयी के अन्य दो स्तंभ थे नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह। त्रिलोचन शास्त्री ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए अंग्रेजी और लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की थी। शास्त्री ने हमेशा ही नवसृजन को बढ़ावा दिया। वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे।
बचपन का नाम था बासुदेव
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कटघरा चिरानी पट्टी में जगरदेव सिंह के घर 20 अगस्त 1917 को जन्मे त्रिलोचन शास्त्री का मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया। लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की थी।
हिंदी साहित्य को किया समृद्ध
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के छोटे से गांव से बनारस विश्वविद्यालय तक अपने सफर में उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। शास्त्री बाजारवाद के धुर विरोधी थे। हालांकि उन्होंने हिंदी में प्रयोगधर्मिता का समर्थन किया। उनका कहना था, भाषा में जितने प्रयोग होंगे वह उतनी ही समृद्ध होगी। शास्त्री ने हमेशा ही नवसृजन को बढ़ावा दिया। वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे। सागर के मुक्तिबोध स्रजन पीठ पर भी वे कुछ साल रहे। उनका निधन 9 दिसम्बर 2007 को गाजियाबाद में हुई।
पत्रकारिता में भी रहे सक्रिय
त्रिलोचन शास्त्री हिंदी के अतिरिक्त अरबी और फारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता माने जाते थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी वे खासे सक्रिय रहे है। उन्होंने प्रभाकर, वानर, हंस, आज, समाज जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। त्रिलोचन शास्त्री 1995 से 2001 तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। इसके अलावा वाराणसी के ज्ञानमंडल प्रकाशन संस्था में भी काम करते रहे और हिंदी व उर्दू के कई शब्दकोषों की योजना से भी जुडे़ रहे। उन्हें हिंदी सॉनेट का साधक माना जाता है।
छंद को भारतीय परिवेश में ढाला
उन्होंने छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग 550 सॉनेट की रचना की। इसके अतिरिक्त कहानी, गीत, गजल और आलोचना से भी उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। उनका पहला कविता संग्रह धरती 1945 में प्रकाशित हुआ था। गुलाब और बुलबुल, उस जनपद का कवि हूं और ताप के ताए हुये दिन उनके चर्चित कविता संग्रह थे। दिगंत और धरती जैसी रचनाओं को कलमबद्ध करने वाले त्रिलोचन शास्त्री के 17 कविता संग्रह प्रकाशित हुए।
कमजोर वर्ग के पक्ष में लिखा
त्रिलोचन ने भाषा शैली और विषयवस्तु सभी में अपनी अलग छाप छोड़ी। त्रिलोचन ने वही लिखा जो कमजोर के पक्ष में था। वो मेहनतकश और दबे कुचले समाज की एक दूर से आती आवाज थे। उनकी कविता भारत के ग्राम और देहात समाज के उस निम्न वर्ग को संबोधित थी, जो कहीं दबा था, कहीं जग रहा था, कहीं संकोच में पड़ा था। त्रिलोचन ने लोक भाषा अवधी और प्राचीन संस्कृत से प्रेरणा ली। इसलिए उनकी विशिष्टता हिंदी कविता की परंपरागत धारा से जुड़ी हुई है। मजेदार बात यह है कि अपनी परंपरा से इतने नजदीक से जुड़े रहने के कारण ही उनमें आधुनिकता की सुंदरता और सुवास थी।
मार्क्सवादी चेतना से संपन्न कवि
प्रगतिशील धारा के कवि होने के कारण त्रिलोचन मार्क्सवादी चेतना से संपन्न कवि थे, लेकिन इस चेतना का उपयोग उन्होंने अपने ढंग से किया। प्रकट रूप में उनकी कविताएं वाम विचारधारा के बारे में उस तरह नहीं कहतीं, जिस तरह नागार्जुन या केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं कहती हैं। त्रिलोचन के भीतर विचारों को लेकर कोई बड़बोलापन भी नहीं था। उनके लेखन में एक विश्वास हर जगह तैरता था कि परिवर्तन की क्रांतिकारी भूमिका जनता ही निभाएगी।
सॉनेट के जन्मदाता के रूप में मिली प्रसिद्धी
वैसे तो उन्होंने गीत, गजल, सॉनेट, कुंडलियां, बरवै, मुक्त छंद जैसे कविता के तमाम माध्यमों में लिखा, लेकिन सॉनेट (चतुष्पदी) के कारण वह ज्यादा जाने गए। वह आधुनिक हिंदी कविता में सॉनेट के जन्मदाता थे। हिंदी में सॉनेट को विजातीय माना जाता था। त्रिलोचन ने इसका भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया। इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवत: स्पेंसर, मिल्टन और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं। सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया।
सम्मान व पुरस्कार
त्रिलोचन शास्त्री को 1989-90 में हिंदी अकादमी ने शलाका सम्मान से सम्मानित किया था। हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हे ‘शास्त्री’ और ‘साहित्य रत्न’ जैसे उपाधियों से सम्मानित किया जा चुका है। 1981 में ताप के ताए हुए दिन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला था।[8] इसके अलावा उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी समिति पुरस्कार, हिंदी संस्थान सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, शलाका सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र राष्ट्रीय पुरस्कार, सुलभ साहित्य अकादमी सम्मान, भारतीय भाषा परिषद सम्मान आदि से भी सम्मानित किया गया था।
कविता संग्रह-
धरती(1945), गुलाब और बुलबुल(1956), दिगंत(1957), ताप के ताए हुए दिन(1980), शब्द(1980),
उस जनपद का कवि हूँ (1981), अरधान (1984), तुम्हें सौंपता हूँ(1985), मेरा घर, चैती, अनकहनी भी कुछ कहनी है, जीने की कला (2004)।
संपादित-मुक्तिबोध की कविताएँ
कहानी संग्रह-देशकाल
डायरी-दैनंदिनी
देहरादून के संदर्भ में
देहरादून के बंजारावाला निवासी एवं उत्तराखंड के प्रसिद्ध जनकवि डॉ. अतुल शर्मा ने त्रिलोचन शास्त्री की पुण्य तिथि पर अपने संस्मरण साझा किए। जो इस प्रकार हैं- हिन्दी काव्य साहित्य के अग्रणी कवि श्री त्रिलोचन शास्त्री जब हमारे एकेपी काजेज निवास पर आये तो बहुत अपनापन और गौरव महसूस हुआ। वे हमारे पूज्य पिता स्वतंत्रता सेनानी कवि श्री राम शर्मा प्रेम के बाल सखा रहे। बातें बहुत हुई। सहज और गम्भीर । उन्होंने बताया कि जब सुलतानपुर मे उन्होंने लिखना शुरू किया तो प्रेम जी उनके लिए कवि सुमित्रानन्दन पन्त की काव्य पुस्तके लाए।

फोटोः डॉ. अतुल शर्मा के घर त्रिलोचन शास्त्री जी और उनकी बहन रीता दीदी (स्मृति शेष) के साथ घर पर अंतरंग पल।
उन्हे उन्होंने अपने हाथ से एक कापी पर लिखा। इसके साथ और भी बहुत सी बातें बताई। जिन्हें मैने कई जगह लिखा है।खादी का कुर्ता पाजामा, दाढी, चश्मा और मुस्कुराता चेहरा। वात्सल्य मिला बहुत उनसे। सादा भोजन किया। लगभग पांच घन्टे तक रहे परिवार के साथ । वे कनखल मे आये हुए थे। अपनी पुत्रवधु के पास। कभी भुलाये नही भूलते वह क्षण। वे कई बार घर आये और पत्र व्यवहार भी हुआ। एक एक पल कभी न भुलाया जाने वाला संस्मरण है। उन्हे नमन।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।