यहां महिलाएं पेड़ों को मानती हैं भाई, बांधती हैं रक्षा सूत्र, दूसरे राज्य भी अपना रहे इस मुहिम को
भाई-बहन का पवित्र त्योहार रक्षाबंधन हो या फिर भैयादूज का मौका। राखी पर महिलाएं भाई की कलाई पर राखी बांधती हैं, तो भैया दूज पर तिलक करने के साथ ही नाले की डोरी बांधती हैं। दोनों ही त्योहारों का एक उद्देश्य यही होता है कि धागे का अटूट रिश्ता है। एक दूसरे की खुशहाली का संदेश है। भाई बहन की रक्षा का संकल्प लेता है। रक्षा तो तभी होगी, जब हमारा पर्यावरण सुरक्षित रहेगा। पर्यावरण की रक्षा के लिए उत्तराखंड में महिलाओं ने जो शुरूआत की वो अब एक मिसाल बनती जा रही है।
हर आयोजन में पर्यावरण को लेकर संवेदनशील
यूं तो आयोजन व पर्व में पर्यावरण की रक्षा की बात होती है। यदि हम पंडितजी से पूजा कराते हैं तो तब भी पूजा में पर्यावरण का जिक्र होता है। पुष्पम दीपम आदि के रूप में। इसी तरह उत्तराखंड में एक और पहल की शुरूआत पिछले कई सालों से हो रही है। ये है शादी के मौके पर। जब विदा होने से पहले दुल्हन से गांव में एक पौधरोपण कराया जाता है। कई गांवों में तो ससुराल पहुंचने के बाद भी दुल्हन और दूल्हा पौधरोपण कर पर्यावरण को सुरक्षित करने का संदेश दे रहे हैं।
धागे की डोर से बनता है अटूट रिश्ता
रक्षाबंधन में भाई बहन एक दूसरे को राखी पहनाते है। राखी का धागा एक अटूट रिश्ता बनाता है। यदि बहन पर कोई कष्ट आ गया तो भाई दौड़े-दौड़े मदद करने पहॅुंच जाता है। इसमें यह जरूरी नहीं कि किसी का अपना भाई या बहन ही हो। यदि जीवन पर्यन्त किसी का भाई- बहन का संबंध बन जाता हैं ,तो वे भी राखी के धागे के डोर में बॅंधकर एक दूसरे के दु;ख- सुख में खड़े रहते हैं। यह एक अनुशासन पर्व भी है, जिसमें देष के कोने-कोने से लोग एक दूसरे को राखी पहनाने आते है। यदि कोई दूर देश में भी रह रहा होगा तो राखी का धागा रक्षाबंधन के दिन ही डाक से पहॅुच जाता है। यह अनोखा त्योहार धरती के सम्मान का प्रतीक है। इसमें बिना किसी बनावटी रंग-भेद, जात-पांत, ऊंच-नीच को भुलाकर धरती माता के रूप में नारी शक्ति का सम्मान किया जाता है।
पर्यावरण की रक्षा को सैनिक की भांति खड़ी हैं महिलाएं
यह रक्षाबंधन का त्योहार हो या भैया दूज। केवल हाथों में राखी बांधकर समाप्त नहीं होता है। कई वर्षो से वनों से चारापत्ती व ईधन के रूप में लकड़ी लेने वाली महिलायें तो पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधती है। वे पेड़ -पौधों की रक्षा के लिये सैनिकों के रूप में खडी रहती हैं। क्योंकि, पहाड के गांव में खेती और पशुपालन में वनों का महत्वपूर्ण योगदान है। इसी के चलते पेड़ों से महिलाओं का एक तरह से जन्म जन्मांतर का रिश्ता है।
जंगल से है महिलाओं का रिश्ता
मध्य, उत्तर पूर्व और पश्चिम हिमालय के किसी भी गॉंव को देखेंगे तो ऊपर जंगल व चारागाह बीच में गॉंव और इसके चारों ओर सीढ़ीदार खेती की जमीन। इसी में कहीं जल स्रोत भी होगा। जहां से लोग पीने के पानी की आपूर्ति करते है। गांव के इस दृष्य से ही अंदाज लगाया जा सकता है कि यहॉं पानी, पशुपालन, खेती आदि कार्य जंगल के कारण चलते हैं। विज्ञान के इस युग में जंगल जाने वाली महिलाओं के पीठ का बोझ भी कम नहीं हुआ है। अब जंगल दूर भाग रहे है। इस विषम परिस्थिति में भी वनों से महिलाओं का दैनिक रिश्ता है।
ऐसे हुई शुरूआत
सन 1994-95 की घटना है जब मध्य हिमालय उत्तराखण्ड में लोगों ने पेडो पर रक्षासूत्र बॉंधे। उन दिनों यहां वनों की अंधाधंध कटाई हो रही थी। तत्कालीन उत्तर प्रदेष की सरकार ने उत्तराखण्ड में 10 हजार फीट की उॅचाई तक दुर्लभ वन प्रजातियों को सूखा घोषित करके वन कटान के लिये का रास्ता खोल दिया था। इन दिनो उत्तराखण्ड में पृथक राज्य का सघर्ष चल रहा था। लोग सडको पर आ गये थे। नों के निकट रहने वाले दर्जनों गांव के लोगों के सामने जब निर्दयतापूर्ण पेड़ों की कटाई होने लगी तो, टिहरी और उत्तरकाशी की महिलाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पेड़ों को बचाने के लिये राखी बांधी। 5-6 वर्षो के संघर्ष के बाद सन 2000 तक कई स्थानो पर वनों का व्यावसायिक कटान रोकने में सफलता मिली। आज भी कई स्थानों पर हरे पेड़ों की कटाई के खिलाफ रक्षासूत्र बांधे जाते है। जिसे रक्षासूत्र आन्दोलन के नाम से जाना जाता है।
अन्य राज्यों में भी चलाई गई मुहिम
रक्षासूत्र आन्दोलन की तर्ज पर उत्तराखंड के अलावा हिमाचल, जम्मू कश्मीर, उत्तरपूर्व दिल्ली आदि कई स्थानों पर लोगों ने पेडो को बचाने की मुहिम चलाई है। अकेले उत्तराखंड में लगभग 12 लाख वृक्षो को कटने से बचाया गया था। रक्षाबंधन के पर्व पर कई स्थानों से खबरे छपती रहती है कि बच्चों, महिलाओं और शिक्षकों ने पेडो पर रक्षासूत्र बांधकर पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया है।
हर साल हो रहा है वनीकरण
पहले अधिकांश मिश्रित प्रजातियों के वन मिलते थे। जिसे वापस लाने के लिये हर साल लाखों-लाखों चौडीपत्ती के वनों का रोपण होता है । एक ही दिन में 30 लाख से लेकर 1 करोड पौधे लगाने का कीर्तिमान हासिल किया जा रहा है। इसके बावजूद भी पहाड के जंगलों में केवल चीड़ ही दिखाई दे रहा है।
ग्रामीणों ने उगाए जंगल, करते हैं रक्षा
काबिलेगौर है कि चीड़ को नियंत्रित कर टिहरी और उत्तरकाषी के सैकडों गांव जिसमें खिटटा, खलडगांव, मजखेत, पिपलोगी, कुडियालगांव, रावतगांव, और मटटी, डांग, सिरी, धनेटी, धनपूर, पंजियाला, जुगुल्डी, अलेथ आदि ने मिश्रित वन पालकर इसकी रक्षा के लिये पेडों पर राखी बांधी है। गांव के लोग अपने पाले हुये जंगलो से आवश्यकतानुसार चारापत्ती और जलाउ लकड़ी लेते है। वे सालभर इसकी सुरक्षा अपने चौकीदार से करवाते है। प्रत्येक घर से चैकीदार को नगद अथवा अनाज के रूप में पारिश्रमिक दिया जाता है। वन संरक्षण की इस मजबूत व्यवस्था को बनाये रखना वर्तमान में गांव के सामने एक चुनौती बनकर भी उभर रही है। क्योंकि लोगों के पास वनाधिकार नहीं है, लेकिन जंगल उन्हीं के हैं। जो जंगल के बीच हैं, वे हमेषा इसी भावना से जीते रहें है।
दे रहे हैं ये संदेश
पेड़ों पर राखी बांधकर जलवायु नियंत्रण, वर्षा वनों का पोषण, जल स्रोतों की रक्षा और खेती बाड़ी को बढाने का संदेश भी है। कई स्थानों पर रक्षासूत्र नेतृत्वकारी महिलाये जैसे सुमति नौटियाल, गंगादेवी, हिमला,आदि से सवाल पूछा गया कि राखी बांधकर पेडो से महिलायें चारापत्ती क्यों लाती है। तो इनका जबाव था कि पेड़ उनके भाई हैं। जो वर्षभर चारा और लकडी देते है। भाई की कलाई पर इसलिये राखी बांधी जाती है कि वह हर समय साथ रहता है। ठीक उसी तरह पेड़ भी उनकी हर तरह की मदद करते हैं। रक्षासूत्र आन्दोलन में सक्रिय रही अनिता, उमा, कुंवरी, सुषीला, संगीता, प्रेमा, जेठी देवी, मदोदरीदे वी, विमला देवी, रोशनी, सुमनी, बसंती नेगी आदि कई दर्जनों नाम है, जिनका पेड़ों के साथ रिश्ता बना है।
लेखक का परिचय
नाम-सुरेश भाई
लेखक रक्षासूत्र आन्दोलन के प्रेरक है। वह सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरणविद हैं। वह उत्तराखंड नदी बचाओ आंदोलन से भी जुड़े हैं। सुरेश भाई उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष भी हैं। वर्तमान में वह उत्तरकाशी के हिमालय भागीरथी आश्रम में रहते हैं।