सपनों की दुनिया, बंदूक की गोली की आवाज और ठाकुर साहब का दिखना, मैने भी सच होते देखे हैं कई सपने
जीते जागते सोचो तो ख्वाब। नींद में देखो तो सपना। सच ही है कि ख्वाब में व्यक्ति का अपना जोर भी चलता है, लेकिन सपने में नहीं। ख्वाब देखकर उसे साकार करने की भी व्यक्ति चेष्टा करता है।
सपने भी कमाल के होते हैं। संयोगवश कई बार सपनों का लिंक हकीकत से भी जुड़ जाता है। बचपन में स्कूल में बच्चे किताब में मोर पंख को किसी पेज में रखते थे। इसके पीछे तर्क दिया जाता था कि इससे विद्या माता की कृपा होती है। तब मुझे भी ये समझ नहीं आया कि बगैर पढ़े विद्या माता कैसे कृपा कर सकती है। खैर करीब पंद्रह साल पहले की बात है। एक रात मैने सपना देखा कि मैं किताब पढ़ रहा हूं। उसके लिए जैसे ही पेज खोलता हूं, तो उसमें एक मोर पंख निकलता है। नींद खुलने के बाद सुबह मुझे रात का सपना याद रहा।
मैं आफिस जाने के लिए घर से निकला। मोहल्ले की सड़क से जैसे ही मुख्य मार्ग राजपुर रोड पर पहुंचा तो एक व्यक्ति मुझे नजर आया। उसके हाथ में मोर पंख से बनी सामग्री थी, जिसे वह बेच रहा था। मुझे अपने सपने पर आश्चर्य था। इसे संयोग करेंगे या फिर इत्तेफाक, लेकिन सच्चाई मेरे सामने खड़ी थी। उस व्यक्ति से मैने मोर पंख का छोटा का झाड़ू खरीद लिया, जिससे घर में पूजा स्थल की सफाई की जा सके। वह आज भी मेरे यहां मौजूद है।
इसी तरह एक रात मैने सपने में गोली चलने की आवाज सुनी। फिर देखा कि दो व्यक्ति एक व्यक्ति को इस तरह से उठाकर ले जा रहे हैं, जैसे उसके नीचे कुर्सी हो। यह व्यक्ति ठाकुरजी थे। जो एक कर्मचारी नेता हैं। उनको सभी ठाकुर साहब कहते हैं। सपने देखा कि उन्हें गोली लगी थी। कपड़े खून से सने थे। मां की आवाज के साथ सुबह सपना भी टूटा और नींद भी खुली। सपने को मैं भूल गया। दोपहर समाचार तलाशने देहरादून कलक्ट्रेट गया तो ठाकुर साहब नजर आए। उनके हाथ में दो नाली बंदूक थी।
मैने इससे पहले ठाकुर साहब को बंदूक के साथ नहीं देखा था। सपना देखा तो जिज्ञासा कुछ ज्यादा ही हुई। उनके पास जाकर पूछ ही लिया, कि वह बंदूक लेकर क्यों खड़े हैं। तब उन्होंने बताया कि बंदूक का लाइसेंस रिन्यूअल कराने कचहरी आया हूं। मैने इसे संयोग ही माना। क्योंकि मैने इससे पहले ना तो कभी ठाकुर साहब को बंदूक के साथ देखा था और ना ही मुझे ये पता था कि उनके पास बूंदूक भी है। खैर इन सपनों का रहस्य मैं आज तक नहीं जान पाया।
खैर इन दिनों गरमी का मौसम है। जून का महीना है। मार्च और अप्रैल माह में गमलों और पेड़ों में जो फूल खिले थे। वे अब मुरझा रहे हैं। इन्हें भी बारिश का इंतजार है। बगीचों में लीची पक चुकी है। हालांकि, बारिश न होने की वजह से लीची ज्यादा मोटी नहीं फूल पाई। पर बारिश न होने की वजह से उनमें कीड़े पड़ने की संभावना भी कम है। आम भी पेड़ों में बड़े होने लगे हैं। जंगल व बगीचों से छनकर आने वाली हवा भी एक मिठास का अहसास कराती है। बिजली ना जाए तो रात को नींद भी गहरी आती है। साथ ही आते हैं सपने। सपनों में मैं अक्सर उस समय के देहरादून को देखता हूं, जब मैं छोटा था। वही, टिन की छत का किराए का मकान। घर के आसपास घना जंगल। आम, लीची व अमरूद के बगीचे। खाली व सूनी सड़कें। कभी कभार मोटर कार का नजर आना। सडक किनारे हरियाली, फलों और फूलों से लदे पेड़ आदि।
गरमियों में अंतिम दिन की परीक्षा समाप्त होने के बाद हमारा बगीचों में जाकर छोटे-छोटे आम को तोड़ना। बगीचे के रखवाले का डंडा लेकर पीछे पड़ना। फिर दौड़ लगाकर बच्चों का भागना। आज शहर भी वही है। हरे-भरे जंगल की खूबसूरती को कंक्रीट से जंगलों ने लील लिया। बच्चों को बगीचे दिखाने के लिए मुझे कई किलोमीटर का सफर तय करना पड़ सकता है। आज के बच्चों को शायद ही ऐसे सपने आते होंगे। क्योंकि उन्होंने वो सब नहीं देखा। वे तो कंप्यूटर गेम के सपने देखते हैं। सपने देखते हुए गेम को लेकर आपस में लड़ते हैं और वही बड़बड़ाते हैं।
भानु बंगवाल
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।