सांस्कृतिक, धार्मिक और पहाड़ की धरोहर का प्रतीक और आकर्षण ‘पहाड़ी गागर’- आशिता डोभाल
गागर में सागर जैसी कहावत को सुनने से प्रतीत होता है कि ये जो गागर है वाकई में कई मायनों में अपने अंदर बहुत सारी खूबसूरती को समाए हुए है। पहाड़ की संस्कृति और लोक जीवन में अनेकों अनेक रंग हमारी जीवनशैली को, हमारे लोक को दर्शाते है उसमे हमारी आस्था विश्वास और संस्कृति से गहरा लगाव किसी से छुपा नहीं है। एक समय था जब लोग पानी भरने घर गांव से लगभग एक या आधा किलोमीटर दूर से पीने का शुद्ध पानी भरकर लाया करते थे। गांव की बसायत पानी के स्रोत से लगभग दूरी ही हुआ करती थी। इसके बहुत सारे कारण भी रहे होंगे। चाहे हमारे स्वास्थ या स्वच्छता के हिसाब से रहा होगा। या धर्मिक मान्यताओं की वजह से। या कुछ और ये बता पाना थोड़ा मुश्किल है।
घरेलू काम में सुबह उठकर सबसे पहले ताजा पानी भरना रोज का नियम होता था। ये दिन का सबसे पहला और महत्वपूर्ण काम भी था। गागर में पानी भरकर लाना वो भी कम मुश्किल काम नहीं था, पर पहाड़ी जीवनशैली में उतना मुश्किल भी नहीं। क्योंकि हम लोग रोजमर्रा की जीवनशैली में इन कामों को आसानी से कर लेते है। एक समय वो भी था जब लोग पहाड़ में फिल्टर और आरओ जैसी तकनीक से बिल्कुल अनजान थे। लोग परिचित थे तो सिर्फ गागर से या मिट्टी के घड़े से। लोग अपनी बसायत के लिए ऐसी जगह का चयन करते थे, जहां पर 12 महीनों पानी की जलधारा बहती हो। जो कभी दूषित न हो, बल्कि मौसम के अनुसार सर्दियों में गरम और गर्मियों में ठंडे पानी की बहने वाली धारा वाले स्रोत होते थे। ऐसे पानी को गागर में भरा जाए तो उसका स्वाद और मीठा हो जाता था।
आज समस्या इस बात की है कि न जल श्रोत बचे न गागर घर के अंदर दिख रही है। क्योंकि जल संस्थान और जल जीवन मिशन और न जाने सरकारी महकमे की बड़ी बड़ी योजनाओं ने हमारे जल स्रोतों और हमारी गागर को निगल लिया है। क्योंकि जल धाराओं के जीर्णोद्वार के नाम पर सीमेंट और कंक्रीट के निर्माण से जल स्रोत सुख गए हैं। जब जल धाराएं ही नही बचीं तो गागर भी क्यों बचेगी। सरकार का दावा है कि हर घर में पानी के नल पहुंचा दिए जाएंगे, बल्कि नल तो पहुंच गए पर पानी नहीं पहुंचा। यदि पानी पहुंच भी जाए तो उसकी स्वछता की कोई गारंटी नहीं है। बरसात में कीड़े मकोड़ों का नल से निकलना आम बात है।
इससे पहाड़ के घरों में गागर जैसा बर्तन तो नहीं दिख रहा है, बल्कि उसकी जगह फिल्टर और आरओ जैसी तकनीक ने ले लिया है। गागर सिर्फ पहाड़ी गानों में शादी ब्याह और धार्मिक आयोजनों में एक रस्म अदायगी के रूप में दिखती है। लोग बेटी को दहेज में गागर तो देते हैं, पर उसके महत्व को समझाने का एक छोटा सा प्रयास भी कर लें तो आज इस बर्तन की उपयोगिता हमारी रोजमर्रा की जीवनशैली में हो सकती है। जो कि हमारे स्वास्थ्य के हिसाब से बहुत अच्छा साबित हो सकता है।
विवाह संस्कार के सम्पूर्ण होने में भी गागर का विशेष महत्व है। नववधु के आगमन पर धारा पूजने की रस्म और फिर उसी जल स्रोत से तांबे की गागर में जल भरकर घर ले जाना उस गागर के महत्व को बतलाता है। समय बदला है। आज तांबे की गागर की जगह प्लास्टिक के गागर नुमा बर्तन भी गाँव में देखे जा सकते हैं। आज जब पानी की पाइप लाइन ने पानी को घर घर पहुंचा दिया है तो पानी की स्वच्छता और गुणवत्ता में फर्क आया है। पानी के स्रोतों की साफ सफाई न होने से कई बार हम कई तरह की बीमारियों से ग्रसित होते रहते हैं। क्योंकि बहुत सारी बीमारियों का एक ही कारण होता है। वो है दूषित पानी। आज अगर जरूरत है, तो वो है पानी के जल स्रोतों को संरक्षण देने की उनकी स्वच्छता की। साथ ही गागर की। इससे एक बार फिर से वो कहावत “गागर में सागर” चरित्रार्थ होती नजर आएगी। वरना आने वाली भावी पीढ़ी गागर और जल स्रोतों की विलुप्तता का जिम्मेदार ठहराने का जिम्मा हम लोगो को माना जाएगा।
लेखिका का परिचय
आशिता डोभाल
सामाजिक कार्यकत्री
ग्राम और पोस्ट कोटियालगांव नौगांव उत्तरकाशी।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।