आ गया चुनावी मौसम, भांप रहे हैं वक्त की नजाकत, बदले जा रहे भेष
लो आ ही गया चुनाव का मौसम। छल, कपट, फरेब से नाता रखने वाले, दूसरों को धोखा देने वालों से हिसाब चुकाने का मौका। इस मौके से चूकना नहीं है। क्योंकि, आपकी चौखट में अब एक वोट की भीख मांगने के लिए आने का सिलसिला शुरू हो जाएगा।

नेताओं के लिए मैं ऐसे अपमानजनक शब्द यूं ही नहीं बोल रहा हूं। मेरे शब्दों से यदि किसी को ठेस पहुंचे तो मैं उनसे क्षमाप्रार्थी हूं। वर्तमान में देश की राजनीति का जो हश्र इन नेताओं ने कर दिया, उसमें इस तरह के शब्द भी कम ही पड़ते हैं। क्योंकि मुझे भिखारी व नेताओं में ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। यदि दोनों को एक तराजू के दो पलड़े में डाला जाए तो भिखारी का पलड़ा ही शायद भारी निकले। क्योंकि भिखारी के लिए कोई छोटा या बड़ा नहीं है। मौके की नजाकत भांपते हुए वह अपना वेश बदलता है। पेट की आग बुझाने के लिए वह दूसरों को दुआएं देता है।
भिखारी हर जाति, समुदाय व धर्म के त्योहार में शरीक होता है। ईद के मौके पर ईदगाहस्थल के बाहर भिखारी मुस्लिम टोपी पहने नजर आता है। चादर फैलाकर वह भीख मांगता है और देने वालों को दुआएं देता है। क्रिसमस के मौके पर वह गिरिजाघरों के बाहर नजर आता है। वही व्यक्ति शिवरात्री जन्माष्टमी आदि हिंदुओं के त्योहार में मंदिरों के बाहर भी दिख जाता है। यहां सिर्फ उसके पहनावे में ही फर्क होता है। भीख मांगने का तरीका वही होता है। बस मस्जिद के बाहर अल्लाह भला करे, मंदिर के बाहर भगवान भला करे, गिरीजाघर के बाहर यीशु भला करे, जैसे शब्द उसकी जुबां से निकलते हैं। इन सब के बावजूद वह भीख में जो भी दक्षिणा लेता है, उसके बदले दुआ जरूर देता है।
अब नेताओं के चरित्र पर भी नजर डालिए। वह भी हर धर्म, संप्रदाय, जाति की बात करता है। कई बार तो वह धार्मिक आयोजनों में जाता है, तो पहनावा भी वहीं के हिसाब से रखता है। मौका मिलने पर वह भी वोट की भीख मांगता है। पर नेता तो लेता ही लेता है, बदले में वह कुछ नहीं देता। उलटा वोट मिलने के बाद यदि वह जीत जाए तो पब्लिक का खून चूसने के रास्ते भी तलाश कर लेता है। सच तो यह है कि मौका मिलने पर वह आदमी के लहू में रोटी डूबो कर खाने से भी संकोच नहीं करता।
भिखारी वक्त की नजाकत को भांपकर वेश बदलता है, भीख मांगने का स्थान बदलता है। नेता भी तो यही कर रहा है। पूरे जीवन भर एक पार्टी में रहकर दूसरे दल को गरियाता रहता है। चुनाव से पहले ऐन वक्त पर मौका देखकर पार्टी बदलने में भी जरा गुरेज नहीं करता। भले ही पहले तक उस दल को वह हर दिन गालियां देता रहा हो। चुनाव के मौसम में आजकल ऐसे लोगों की बाढ़ सी आई हुई है। बस वे तो आपस में लड़ना व दूसरों को लड़ाना जानते हैं। पूरब को पश्चिम से, उत्तर को दक्षिण से, ठाकुर को ब्राह्मण से, जाति, धर्म, सांप्रदायिकता के नाम पर एक दूसरे को लड़ाने में वह माहिर है।
अब देखो कि कई बार एक नेता एक दल छोड़ता है तो पत्नी दूसरे दल में होती है। दो दल रहेंगे तो दोनों हाथों में लड्डू रहेंगे। अब कई नेता अपने पुराने दलों में वापसी करने लगे हैं। कई को तो आभास होता है कि उनकी पार्टी नहीं जीतने वाली और वे ऐन चुनाव के पहले दूसरे दल का दामन थाम लेते हैं। ऐसे नेताओं ने भी एक रिकॉर्ड बनाया हुआ है। वो दल बदलने के साथ ही ना हारने का रिकॉर्ड है। वक्त की नुजाकत को देखते नेताओं ने तो खूब वेश बदला। पर जनता तो सब देख रही है। फिर भी जनता तो भोली है, नासमझ है। नेताओं के लिए ऐसी जनता जाए भाड़ में।
भानु बंगवाल
लोकसाक्ष्य पोर्टल पाठकों के सहयोग से चलाया जा रहा है। इसमें लेख, रचनाएं आमंत्रित हैं। शर्त है कि आपकी भेजी सामग्री पहले किसी सोशल मीडिया में न लगी हो। आप विज्ञापन व अन्य आर्थिक सहयोग भी कर सकते हैं।
वाट्सएप नंबर-9412055165
मेल आईडी-bhanubangwal@gmail.com
भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।