पहाड़ की बैठकी होली गायन में पलायन का झलक रहा साफ असरः ललित मोहन गहतोड़ी

ऐसे में जब गांव के सभी लोग एक साथ बैठे हों, तो यहां इनमें शामिल कई कलाकार महफिल में रंग जमाने निकल सामने आ जाते। इस दौरान गांव से हजारों किमी दूर बसे लोग जब गांव पहुंच कर इन आयोजनों में शामिल होते तो इन चौपालों की रंगत और बढ़ जाती है। सुबह सुबह की गुनगुनी धूप में चौपाल की साफ सफाई के बाद लोग अपने अपने घरों से दरी कंबल चटाई आदि लेकर आंगन में बिछा देते। इसके बाद यहां हारमोनियम, ढोलकी, झांझर, चिमटा आदि यहां रख दिया जाता। इसके बाद यहां होल्यारों का आना शुरू हो जाता है। इस बीच लंबे समयांतराल से यहां इन आयोजनों पर पलायन का खासा असर देखने को मिल रहा है।
त्योहारी सीजन में गांव की चौपालें हमेशा भीड़ से गुलजार नजर आतीं
आज से दो दशक पहले तक त्योहारी सीजन में गांव की चौपालें हमेशा भीड़ से गुलजार नजर आतीं थी। क्योंकि इस समय यहां दूर देश और परदेश बसे लोग एक एक कर यहां पहुंचना शुरू हो जाते हैं। इस दौरान जमने वाली चौपाल नौजवानों से शुरू होते होते वरिष्ट नागरिकों के आगमन तक यहां सभी व्यवस्थाएं पूर्ण कर ली जाती थी। एक तरफ दर्शक दीर्घा बनती तो दूसरी तरफ चाय, पानी आदि का प्रबंध किया जाता। यहां 5-7 लोगों के जमा होते ही बैठकों का दौर शुरू हो जाता। इसके बाद राग भाग के जानकारों के पहुंचते ही बैठकी होली की शुरूआत कर दी जाती। जो देर शाम और कभी कभी तो समा बंधने पर रात रात भर तक जागरण में बदल जाता था।
पूस के पहले रविवार से होता है बैठकी होली का आयोजन
पहाड़ में बैठकी होली पूस के पहले रविवार से और इसके तीन माह बाद फागुन की एकादशी से खड़ी होली गयी जाती रही है। इस दौरान ग्रामीण बताते हैं हाल के वर्षों में यहां पलायन कर गये लोगों ने यहां आयोजन समारोहों में इक्का दुक्का की संख्या में शरीक होना शुरू कर दिया है। पलायन के चलते यहां भी खास बैठकों के शौकीन ही नहीं रहे। शेष राग भाग के जानकार मिलना तो यहां अब बीते दौर की बात लगने लगी है।
बैठकी होली का समृद्ध है इतिहास
कुमाऊं में बैठकी होली का काफी समृद्ध इतिहास रहा है। माना जाता है कि बैठकी होली गायन की शुरूआत 16वीं सदी में चंद राजा कल्याण चंद के शासन काल से शुरू हुई थी। शस्त्रीय होली गीतों के रचनाकारों में पहला नाम पंडित गुमानी पंत का आता है। उनके द्वारा ही विभिन्न प्रकार के राग और रागिनियों की रचना की गई थी। बैठकी होली में अलग-अलग समय पर अलग-अलग राग गाए जाते हैं। इनमें राग धमार, राग काफी, राग जंगला काफी, राग परज, राग भैरवी, राग बागेश्री, राग सहाना, राग विहाग, राग खम्माज, राग पीलू, राग झिझोटी, राग देश, रागह धमार आदि प्रमुख हैं।
श्रृंगारिक रचनाओं से शुरू होता है गायन
कुमाऊं में बसंत पंचमी से आंशिक श्रृंगारिक रचनाओं का गायन प्रारंभ किया जाता है, जो शिवरात्रि तक चलता है। शिवरात्रि को शिवपदी होलियां गाई जाती हैं। जिसमें शिव आराधना से संबंधी रचनाएं होती हैं। होलाष्टक के बाद श्रृंगार रस से परिपूर्ण होली गायन प्रारंभ होता है। आमलकी एकादशी से रंग भरी होली प्रारंभ होती हैं। श्रृंगारिक रचनाओं में राधा कृष्ण का मिलन, वियोग, कृष्ण का गोपियों के साथ श्रृंगार वर्णन एवं बाल लीलाओं में चूड़ी तोड़ना, मटकी फोड़ना, वस्त्र आभूषण छिपाना, माखन चोरी आदि रचनाएं आती हैं। खड़ी होली टीके के दिन बैठकी होली का विधिवत समापन होता है, लेकिन कई जगह इसके बाद भी बैठकी होली चलती रहती है। चम्पावत जिले में पाटी, लोहाघाट, बाराकोट, सुई, विस्ज्यूला, खर्क, गुमदेश क्षेत्र में बैठकी होली गायन पौष मास के हर रविवार को शाम से शुरू होकर सुबह पौ फटने तक चलता है। गायन में महिलाएं भी उमंग और उत्साह के साथ प्रतिभाग करती हैं।
लेखक का परिचय
नाम-ललित मोहन गहतोड़ी
शिक्षा :
हाईस्कूल, 1993
इंटरमीडिएट, 1996
स्नातक, 1999
डिप्लोमा इन स्टेनोग्राफी, 2000
निवासी-जगदंबा कालोनी, चांदमारी लोहाघाट
जिला चंपावत, उत्तराखंड।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।