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July 4, 2025

अक्ल के टप्पू, सिर पर बोझ, घोड़े पर अप्पू, खरीद कर नहीं ला सकते कहीं से

अक्ल के टप्पू, सिर पर बोझ घोड़े पर अप्पू। इस कहावत को मैं बचपन से ही पिताजी से मुख से सुनता रहा। उनका हर कर्म एक सिस्टम के अंतर्गत होता था। जब भी हम कोई गलती करते तो वह इस कहावत को कहते।

अक्ल के टप्पू, सिर पर बोझ घोड़े पर अप्पू। इस कहावत को मैं बचपन से ही पिताजी से मुख से सुनता रहा। उनका हर कर्म एक सिस्टम के अंतर्गत होता था। जब भी हम कोई गलती करते तो वह इस कहावत को कहते। इसका मतलब था कि सिर पर तो बोझ की गठरी पड़ी है और बेअक्ल घोड़े पर बैठा है। पिताजी कहानी सुनाते थे कि एक व्यक्ति की घोड़ी गर्भवती थी। वह घोड़ी की पीठ पर बैठा और अपने सिर पर उसने बड़ी गठरी लादी हुई थी। गठरी सिर पर रखने के पीछे उसका तर्क था कि घोड़ी पर ज्यादा बोझ न पड़े। वाकई अक्ल ही ऐसी चीज है जो किसी भी व्यक्ति की निजी पूंजी है। यह किसी पेड़ पर नहीं उगती और न ही इसे कहीं खरीदा जा सकता है। यह तो व्यक्ति खुद ही विकसित करता है।
अक्ल के टपोरे के एक कहानी और है। तेज धूप में उबड़ खाबड़ पहाड़ी रास्तों में एक अक्ल का टपोरा जा रहा था। उसके हाथ में छतरी थी, लेकिन तेज धूप के बचने के लिए उसने छाता नहीं खोला। वहीं, जूते भी थैले में रखे थे और नंगे पैर चल रहा था। इसी दौरान नदी आती है। नदी को पार करने से पहले टपोरा सोचता है कि पैर में कंकड़ चुभ सकता है। फिर वह जूता पहन लेता है। नदी पार कर फिर जूतों को थैले में डाल देता है। कुछ दूर चलकर थकता है तो एक पेड़ की छांव में आराम करने को बैठता है। ऊपर से छाता खोल देता है। यहां अक्ल का टपोरा सोच रहा था कि पेड़ से कहीं कोई चिड़िया उसके सिर पर बिट न कर दे। इसलिए उसने छाता खोला।
वैसे कहा गया कि जैसा सोचोगे, जैसा करोगे तो व्यक्ति वैसा ही हो जाता है। व्यक्ति अपने जीवन को जिस तरह ढालेगा वह वैसे ही होने लगता है। छोटी-छोटी बातों पर भी यदि हम अक्ल का सही इस्तेमाल करें तो काम सही तो होगा ही और उसे करने का आनंद भी आएगा। पितृ पक्ष आते हैं और निपट जाते हैं। हिंदू परंपराओं के मुताबिक सभी निश्श्चित तिथि पर पूर्वजों को तर्पण के माध्यम से मोक्ष की कामना करते हैं। हम हर साल श्राद्ध में पित्रों को याद करते हैं फिर श्राद्ध निपटने पर उन्हें भूल जाते हैं।
हम पितृ पक्ष को सही तरीके से समझते नहीं हैं और सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर पंडितजी को घर बुलाते हैं। वह तर्पण कराते हैं और हमसे संकल्प लिवाते हैं। क्षमता के मुताबिक पंडितजी को हम दक्षिणा देते हैं और वह भी अपना झोला समेट कर चले जाते हैं। बस हो गया पित्रों का श्राद्ध। हमने संकल्प लिया, लेकिन क्या संकल्प लिया यह हमें पता ही नहीं रहता। इसका कारण यह है कि हम सिर्फ परंपराओं को निभाते हैं। उसके सही मायनों को समझने का प्रयत्न नहीं करते। सभी मायनों में पितृ पक्ष में श्राद्ध करने व पित्रों को याद करने का मलतब यह है कि हम अपने पूर्वजों के आदर्शों को याद करें। उनकी अच्छाइयों को जीवन में उतारने का संकल्प लें। यही संकल्प सही मायने में पित्रों को याद करने का बेहतर तरीका है।
हमारे गांव में खेती बाड़ी के लिए सिंचाई की जमीन नहीं है। वहां लोग बारिश पर ही निर्भर रहते है। मेरे पिताजी जब भी गांव जाते तो देहरादून से आम के साथ ही फूलों की पौध ले जाते। वे पौध को खेतों के किनारे लगाते थे। आज पिताजी भले ही इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके हाथ से रोपित आम की पौध पेड़ बनकर आज भी फल दे रहे हैं। अक्सर मेरे पिताजी का यही कहना रहता था कि किसी का मन न दुखाओ, सदा सत्य बोलो।
एक बात पर वह हमेशा जोर देते थे कि हर चीज को एक निर्धारित स्थान पर रखो। इसका फायदा भी मिलता था। जब बत्ती गुल होती, तो निश्चित स्थान पर रखी हमें मोमबत्ती व माचिस मिल जाती। उनका सिद्धांत था कि समय की कीमत समझो। साथ ही अनुशासन में रहो। एक व्यक्ति ने अपने घर का सिद्धांत बनाया हुआ था कि सुबह उठते ही घर के सभी सदस्य पंद्रह से बीस मिनट तक घर की सफाई में जुट जाते। इसके बाद ही उनकी बाकी की दिनचर्या शुरू होती।
इन छोटे-छोटे कामों में भी अक्ल की जरुरत पड़ती है। जैसे एक साहब बाथरूम में नहाने घुसे। पहले उन्होंने गीजर से बाल्टी में गर्म पानी डालने को नल चालू किया। फिर जब आधी बाल्टी भर गई तो ठंडा पानी चालू किया। जब बाल्टी भरी तो कपड़े उतारने लगे। अब कोई समझाए कि गर्म व ठंडा पानी एक साथ भरते और पानी भरने के दौरान ही कपड़े आदि उतारते तो समय की बचत होती। यह समय किसी का इंतजार नहीं करता। घड़ी तो लगातार चलती रहती है। समय निकलने के बाद ही व्यक्ति पछताता है।
एक सज्जन ने चपरासी से सिगरेट मंगाई तो समझदार चपरासी माचिस भी लेकर आया। उसे पता था कि सिगरेट जलाने के लिए माचिस मांगेगा। ऐसे में उसे फिर से दोबारा दुकान तक जाना पड़ेगा। एक महिला सब्जी बनाने के लिए करेले को छिल रही थी। तभी दूसरी ने उसे बताया कि करेले की खुरचन को फेंके नहीं। उसे नमक के घोल के पानी में कुछ देर डुबाकर रखे। फिर खुरचन को धोकर आटे के साथ गूंद लो। बस तैयार कर लो पोष्टिक परांठे।
बेटा बड़ा होकर माता-पिता को घर से निकाल रहा है, वहीं बेटी की बजाय पुत्र मोह में अक्ल के टपोरे फंस रहे हैं। उत्तराखंड में एक बार आपदा आई तो दूसरे राज्यों से भी मदद के हाथ बढ़े। अक्ल के टपोरे नेता फिजूलखर्ची रोकने की बजाय विधानसभा सत्र से पहले घर में पार्टी देकर जश्न मनाते नजर आए। पार्टी में एक नेता की रिवालवर से गोली चली और दो घायल हुए। अक्ल के टपोरे घटना पर ही पर्दा डालने लगे। वाकई पार्टी में शामिल लोग गांधीजी के बंदर की भूमिका निभाते दिखे। तभी तो उन्होंने बुरा देखना, सुनना व कहना छोड़ दिया और गोली चलने पर कोई टिप्पणी नहीं की।
अक्ल के टपोरों के तो शायद आंख, नाक, कान तक खराब रहते हैं। वहीं अक्ल की टपोरी पुलिस मौन बैठी रहती है। पूरी दुनियां के लोग हेट स्पीच देते हुए भगवाधारियों को देखती है और पुलिस की जांच एक माह में भी पूरी नहीं हो पाती है। हेट स्पीच देने वालों को अपने कथन पर कोई मलाल नहीं, लेकिन पुलिस ये पता लगाने का प्रयास कर रही है कि उन्होंने कुछ बोला या नहीं। नेता खामोश हैं। सभी को अपनी राजनीति चमकानी है। चुनाव आए और कोरोना भी साथ साथ बढ़ रहा है। कोरोना की परवाह किसे है। यहां तो वोट चाहिए। अक्ल के टपोरों को देखिए, सुबह लोगों से मास्क लगाने की अपील करते हैं और दिन चढ़ने पर खुद बगैर मास्क के भीड़ में पहुंच जाते हैं। अक्ल के टपोरे कहते हैं दिन में भीड़ जुटाओ और रात को कर्फ्यू लगाओ। रात को वैसे भी कर्फ्यू ही होती है। लोग सोते हैं। बाहर कौन निकलता है। बामुश्किल दो से तीन फीसद लोग। लोग जाएं भाड़ में। नेताओं वोट चाहिए। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि अक्ल का जितना इस्तेमाल करो वह उतनी बढ़ती है।
भानु बंगवाल

Bhanu Bangwal

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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