बीमारी से आठवीं के बाद छूटा स्कूल, फिर भी हासिल किया मुकाम, एक बालिका की दर्द भरी कहानी

कु. सिमरन वो युवा लेखिका हैं, जिसे हजारों में से किसी एक को होने वाली नसों की बीमारी से जूझना पड़ा। जब सिमरन 7 साल की थी तो उसमें नसों की कमजोर होने के कारण होने वाली इस बीमारी के लक्षण दीखने लगे। इस बीमारी में पीड़ित दिनों दिन शारीरिक रूप से कमजोर होने लगता है और उसके सारे शरीर विशेष कर जोड़ों में असहनीय दर्द होने लगता है। साथ ही हाथों और पाँवों की ऊंगलियों के जोड़ों पर कील नुमा नुकीली संरचनाएं उभरने लगती हैं, जो चुभन के साथ असहनीय दर्द का आभास कराती हैं। इस कारण सिमरन बहुत कम विद्यालय जा पाती थी।
पढ़ाई के लिए करना पड़ा संघर्ष
पढ़ने की तीव्र उत्सुकता के कारण सिमरन ने स्कूल जाना नहीं छोड़ा और येन केन प्रकारेण कक्षा 8 उत्तीर्ण किया। आगे की पढ़ाई स्कूल दूर होने के कारण कक्षा 9में अधूरी छोड़नी पड़ी और घर पर बैठना पड़ा। इसके बाद वह बीमारी के चलते काफी समय घर पर रही। गुरुओं ने उसे प्रेरित किया। फिर उसमें पढ़ने की ललक जगी और व्यक्तिगत छात्रा के रूप में नवीं, दसवीं, 11 वीं की परीक्षा पास की। अब वह उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग जिले के जखोली स्थित राजकीय इंटर कालेज रामाश्रम में 12वीं की परीक्षा व्यक्तिगत छात्रा के रूप में देंगी।
नहीं तोड़ा किताबों से नाता
ये सिमरन की जिजीविषा और उसके माता-पिता का ही हौसला था कि सिमरन ने कमजोरी और दर्द के बीच भी किताबों से नाता नहीं छोड़ा। जब सब पारिवारिक लोग अपने कामों में व्यस्त रहते और उसके अगल बगल के सभी संगी साथी स्कूल चले जाते तो एकाकी रहते हुए सिमरन ने अपने मन में उठते भावों से कागजों को रंगना शुरू किया।
यहां से आया जीवन में मोड़
एक बार सिमरन की कुशल क्षेम पूछने के दौरान इसी गांव की रिश्ते में सिमरन की दादी और पेशे से अध्यापिका डॉ. गीता नौटियाल की नजर सिमरन के लिखे इन कागजों पर पड़ी तो बाल मनोविज्ञान की जानकार नौटियाल ने सिमरन की प्रतिभा को भांप लिया। सिमरन के बाल मन में कल्पनाओं के परिन्दे उड़ान भरने के लिए कुलबुला रहे थे। ऐसे में डॉ. नौटियाल ने सिमरन को निराशा के भंवर से बाहर निकालकर उसे आशा की किरण दिखाई। धीरे धीरे सिमरन और नौटियाल का यह दादी-पोती का रिश्ता सखी सहेली में कब बदल गया, दोनों को इसका आभास तब हुआ, जब दोनों के बीच दीन दुनिया से लेकर मन के भावों का आदान प्रदान होने लगा। अब आसपास के बच्चों के माध्यम से दोनों के संदेशों (रैबार) का आदान प्रदान नियमित रूप से होने लगा।
हर दिन पन्नों में लिख नौटियाल तक पहुंचाने लगी सिमरन
अब सिमरन हर रोज अपनी कोई न कोई रचना चाहे वो कविता हो, कहानी हो या कोई संस्मरण, डॉ. नौटियाल तक पहुंचाने लगी। इसी बीच फोन की सुविधा मिलने से सिमरन हर रोज अपने विचारों और ख्यालों को नौटियाल से साझा करने लगी। नौटियाल के पति ने भी दोनों के बीच सेतु का काम किया और सिमरन की लिखी कविता और कहानियां स्थानीय पत्र पत्रिकाओं में स्थान पाने लगी। इससे सिमरन का हौसला बढ़ने लगा।
साल भर में लिख कर किया कमाल
साल भर में ही सिमरन ने एक दर्जन से अधिक कहानी और इतनी ही कविताएं लिख डाली। सिमरन के परिवार ने कभी सिमरन का हौसला कमजोर नहीं होने दिया। सबसे बड़ी बात कि सिमरन ने कभी भी मायूसी को अपने उपर हावी नहीं होने दिया। इसी बीच का इलाज भी चलता रहा, दवा, दुआ और मन के विश्वास की त्रिवेणी ने सिमरन के स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक इजाफा किया। धीरे-धीरे सिमरन की बीमारी का दर्द कम होने लगा, सिमरन ने अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने की भी ठानी और व्यक्तिगत छात्रा के रूप में हाईस्कूल की परीक्षा भी पास कर ली।
खाली समय में जारी रहा साहित्य सृजन
अपने खाली समय में सिमरन का साहित्य सृजन भी जारी रहा। बाल साहित्य पढ़ते पढ़ते कब सिमरन खुद बाल साहित्यकार बन गई, इसका खुद सिमरन को भी पता नहीं चला। अभी कुछ ही दिनों पूर्व सिमरन की पहली पुस्तक हौसले की जीत का लोकार्पण देश के जाने माने बाल साहित्यकार डॉ. गुरबचन जी की उपस्थिति में ऑन लाइन सम्पन्न हुआ।
पुस्तक के बारे में
पुस्तक में “अपनी बात आभार के साथ” शीर्षक से सिमरन ने अपने हृदय को खोलकर दिल के जज्बातों को शब्द देते हुए अपनी कहानी अपने शब्दों में बयाँ किया है। सिमरन की इस पुस्तक की विशेषता यह है कि सिमरन ने इस पुस्तक में साहित्य की तीन विधाओं क्रमशः पद्य, गद्य और नाटक के साथ प्रस्तुत किया है। पुस्तक में 4 कविताएं, 7कहानियां और एक नाटक को पाठकों के समक्ष रखा है। सिमरन की इस पुस्तक ने जहां साहित्य जगत में इस बात पर चर्चा प्रारंभ करवा दी है कि बाल साहित्य बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य है, या बाल साहित्य बच्चों की ओर से लिखा गया साहित्य है। इस बात पर नयें सिरे से विचार विमर्श की आवश्यकता है।
आसपास के वातावरण को बनाया विषय
सिमरन ने अपने साहित्य में जहां एक ओर अपने चारों ओर के समाजिक पर्यावरण के घटकों को अपने लेखन का विषय बनाया है तो वहीं दूसरी ओर बालमन किसी विषय पर क्या नजरिया रखता है, यह भी स्पष्ट किया है। साहित्य की कठिन मानी जाने वाली विधा नाटक को पहली बार लिखकर ही प्रस्तुत कर सिमरन ने समीक्षकों और पाठकों को यह सोचने पर बाध्य किया है कि जरूरी नहीं कि शुरूआत एक विधा से कई जाय। अगर हुनर हो तो कभी भी लेखन शुरू किया जा सकता है।
दादी और नानी की आपबीती ने किया प्रेरित
बाल विवाह एक अभिशाप जहां सिमरन की कल्पनाशीलता को दर्शाता है, वही एक चिंतक की नजर में आने वाले विषयों पर उसका नजरिया भी स्पष्ट करता है। बालपन में दादी, नानी से आज से पचास साल पहले उनकी छः, सात वर्ष की उम्र में शादी की बात सुनकर सहज ही सिमरन ने उनकी कठिनाईयों का अहसास कर अपनी कल्पनाशीलता की गहराई का भी संकेत दिया है।
पाले का घमंड
सिमरन की पाले का घमंड शीर्षक की लघु कहानी पढ़ते वक्त गढ़ गौरव नरेन्द्र सिंह नेगी जी के उस गीत की पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं “पाळै कि सेक्की घाम औणें तक”। इसमें नेगी जी ने प्रकृति के वार्षिक गतिक्रम को पृथ्वी के दैनिक क्रम को उपमेय-उपमान बनाकर नैसर्गिक नियति को अमर शब्द दे दिये। हौसले की जीत शीर्षक कहानी में कहीं न कहीं सिमरन ने अपने अवचेतन मन में एकाकी क्षणों में चल रहे द्वंद को शब्द देकर, यह संदेश देने की सफल कोशिश की है कि हर रात का अंत होकर उजाले का सफर भी शुरू होता है।
जाग गया पंछी में मेहनतकश बनने की सीख
पुस्तिका की तीसरी कहानी- जाग गया पंछी में सिमरन ने आलसी पंछी रिंकू को कहानी का मुख्य पात्र बनाकर मेहनतकश बनने की सुन्दर सीख दी है। पुस्तिका की चौथी कहानी धनपुर गांव में रामलीला मंचन में पशु पक्षियों को रामलीला का पात्र बनाकर यह संदेश देने की सफल कोशिश की है कि सामाजिक आयोजनों पर अपने हास परिहास व मनोरंजन के चक्कर में कहीं न कहीं हम अव्यवस्थाओं के जनक भी बन जाते हैं और गंदगी का अंबार लगा कर प्रकृति को विद्रुप करने का काम भी कर जाते हैं, इस प्रवृत्ति से बचने की आवश्यकता है।
पुस्तिका की पांचवीं कहानी “भूख मीठा या भोजन” में सिमरन ने जहां अन्न की उपादेयता को समझाया है तो वहीं शिष्टता और अशिष्टता के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए शिष्ट व्यवहार करने की भी सीख दी है। पुस्तिका की छठी कहानी में देव और दासा दो पात्रों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि कार्य को कुशलता से सम्पन्न करने में कहीं न कहीं भाग्य का भी कुछ हाथ होता है। यहां वैयक्तिक तौर पर मुझे (इन पंक्तियों के लेखक को) लगता है कि उम्र और अनुभव बढ़ने के साथ सिमरन के लेखन में परिपक्वता और स्पष्टता भी आती जायेगी।
बेटे बेटियों के अंतर को रेखांकित
पुस्तिका की अंतिम और सातवीं कहानी में सिमरन ने गाहे बगाहे कहीं न कहीं समाज में आज भी बेटे और बेटियों के बीच किये जा रहे अंतर को रेखांकित किया है, कहानी उद्देश्य में सफल इसलिए बन पड़ी कि अंत में विवेक अपने माता पिता को आरती को स्कूल भेजने के लिए राजी करने में सफल रहा।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रथम प्रयास होने और लेखन व दीन दुनिया का बहुत विस्तृत अनुभव न होने के बावजूद भी सिमरन कहीं से भी नई लेखिका होने का झोल नहीं छोड़ती हैं। सिमरन के लेखन में नये आयामों को छूने की भविष्य में बहुत संभावनायें विद्यमान हैं। नव लेखिका सिमरन को भावी भविष्य की आकाश भर शुभकामनाएं….।
पुस्तक का आवरण
पुस्तक का आवरण पृष्ठ पुस्तक के नाम के अनुरूप बाल मनोविज्ञान के आधार पर आकर्षक कहा जा सकता है। पुस्तक में यथा स्थान कहानी की मांग के अनुरूप बाल मनोविज्ञान के अनुकूल रुचिकर रंगीन चित्रों से सजाने में रवीश काला और उपासना भट्ट कर्नाटक ने स्तुत्य कार्य किया है। पुस्तक को ओमांश ने डिजाइन किया है।
पुस्तक श्री कम्यूनिकेशन, श्रीनगर गढ़वाल ने प्रकाशित की है, कीमत 150 रूपये है। पुस्तक श्री कम्यूनिकेशन 76-अपर बाजार, श्रीनगर गढ़वाल – 246174 से मंगाई जा सकती है। या 01364-252298 पर सम्पर्क किया जा सकता है। अधिक जानकारी के लिए आप hemant. chaukiyal@gmail.com पर भी सम्पर्क कर सकते हैं। इससे पहले भी सिमरन की कवितायें और कहानियां स्थानीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इन्हें पाठकों का प्यार मिलने के कारण ही सिमरन इस पुस्तक को प्रकाशित करने का साहस कर सकी है।
सिमरन का परिचय
नाम – कु सिमरन रावत
माता – सुनीता देवी (गृहणी)
पिता-बीर सिंह रावत (पिता टैक्सी चालक हैं)
ग्राम-रिंगेड़ (बैनोली), पोस्ट जाखाल, विकासखंड जखोली, जिला रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड।
लेखक का परिचय
नाम- हेमंत चौकियाल
शिक्षक राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय डॉंगी गुनाऊँ, जनपद रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड।
Mail – hemant.chaukiyal@gmail.com
Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।
सिमरन जैसी बहने प्रेरणा की प्रतिमूर्ति । लडती रहो ,जीतती रहो बहन ।। ?