कविता- मैं जंगल मेरा भी है अपना घरः विनोद सिंह मनोला
मैं जंगल मेरा भी है अपना घर
जिसमें रहता मेरा परिवार।
छोटी तितली से लेकर बड़ा बाज
छोटे कीङे से लेकर जंगल का राजा शेर
सब रहते इसके अंदर
मैं जंगल मेरा भी है अपना घर।
झाड़ी पेड़ पौधे और जानवर
किसी को खाता तो किसी को जलाता
रे इंसान तू मुझ पर क्यों है इतना निर्भर
मैं जंगल मेरा भी है अपना घर।
हर आपदा (बाढ़, भूस्खलन आदि) से तुझे बचाऊं
तुझसे मिली आग की लपटें भी सहूं
क्यों करता इतना अत्याचार मुझ पर?
मैं जंगल मेरा भीहै अपना घर।
कभी खुद के लिए तो कभी जरूरतों के लिए
तूने किए हजारों वार मुझ पर
बदले में दिए फल फूल और ठंडी बयार
मैं जंगल मेरा भीहै अपना घर।
हर बार तू जलाता मुझको
जलता मेरा घर परिवार और संसार
फिर से उठ खड़ा होने तक
तू फिर मझे कर देता बेघर
रे इंसान मेरा भी है अपना घर।
कवि का परिचय
विनोद सिंह मनोला
जिला पिथौरागढ (डीडीहाट)।
9557521627
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।