कवि श्याम लाल भारती की कविता-मन की उलझनें

मन की उलझनें
जीवन की अनसुलझी उलझनें,
क्यों आज मुझे उलझा रही हैं।
निकलूं कैसे उलझनों के भंवर से,
उलझनें क्यों भंवर जाल में फंसा रहीं हैं।।
क्यों मानव जाति में भेदभाव यहां,
क्यों अछूत का तगमा लिए आ रही है।
मिटेगा क्या कभी हृदय से भेद भाव यहां,
क्यों उलझनें भंवर में और उलझा रहीं हैं।।
धर्म एक नसों में खून एक सबके,
फिर क्यों ऊंच नीच लिए आ रही है।
पर वक्त भी उलझ कर रह गया यहां,
कौन अछूत का जाल बिछाए आ रही है।।
मिटा दो मिल जुलकर भेदभाव यहां से,
क्यों उलझनें और उलझा रहीं हैं।
ये जात पांत की रेखा मुझे क्यों,
उलझनों के भंवर में उलझा रहीं हैं।।
उलझा रहीं हैं, उलझा रहीं हैं।।
कवि का परिचय
श्याम लाल भारती राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय देवनगर चोपड़ा में अध्यापक हैं और गांव कोठगी रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड के निवासी हैं। श्यामलाल भारती जी की विशेषता ये है कि वे उत्तराखंड की महान विभूतियों पर कविता लिखते हैं। कविता के माध्यम से ही वे ऐसे लोगों की जीवनी लोगों को पढ़ा देते हैं।
Bhanu Bangwal
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।