कवि सोमवारी लाल सकलानी की कविता- मेरे डांडों कांठों में आजकल

मेरे डांडो – कांठों में आजकल सुरभित पुष्प खिले हैं।
बांज बुरांश मौरू तरुवर, शांत स्निग्ध हरितपर्ण धरे हैं।
प्रिय बसंत की आहट पाते ही, नव पल्लव रूप भरे हैं,
नाना रूप धर धरती माता, खेतीबाड़ी को खेत सजे हैं।
मेरे डांडों – कांठों में आजकल अंबर शीत सूर्य उगा है।
स्वर्ण रश्मियां भरकर जग में, कटु शिशिर सीत हरा है।
लग गई होने हलचल जीवन में, जीवन – रहस्य खुला है,
और तुम्हारी यादों मे प्रिय, देखो ! निशांत राग भरा है।
मेरे डांडों कांठों में आजकल, जन सैलाव उमड़ चला है,
पट गया अब पहाड़ पर्यटकों से, रोजगार द्वार खुला है।
सुरकंडा माता का मंदिर शुचि नाद संग नभ चूम रहा है।
आसमान से स्वर्ग उतरकर ,अब छानी के पास पहुंचा है।
मेरे डांडों कांठों में आजकल दिव्य बसंत आ धमका है।
नीरव निष्क्रिय जीवन, मधु- ऋतु में नूतन उमंग भरा है।
आ जाओ प्रिय पास हमारे, तुम्हें घर गांव पुकार रहा है,
देखो निशांत कितना हर्षित होकर, कविता सुना रहा है।
कवि का परिचय
सोमवारी लाल सकलानी, निशांत।
सुमन कॉलोनी, चंबा, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड।