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May 3, 2025

युवा कवि सूरज रावत की कविता- ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन

ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन,
ना जाने कहाँ चले गये वो बेफिक्री के दिन,
कभी कंचों की दुकान लगाते थे,
कभी नकली हलवाई बन पकवान बनाते थे,
कभी मिट्टी के घर, कभी लकड़ियों के महल बनाते थे,
कभी कागज का जहाज उड़ाकर पायलट बनते थे ,
तो कभी कागज की नांव चलाते थे,
कहाँ दफ़न हो गया हमारा वो प्यारा सा बचपन,
ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन, (कविता जारी अगले पैरे में देखिए)

नहीं होते थे तब महंगे खिलोने हमारे पास,
कभी मिट्टी तो कभी धूल में सने होते थे हम दिन रात,
ना कोई बड़ी ख्वाईश थी , और ना कोई बड़े ख्वाब,
ना खाने की फिकर होती थी, ना ज्यादा कुछ पहनने की टेंशन ,
बस खेलने कूदने में ही निकल जाता था पूरा दिन,
ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन,
कभी दिन भर क्रिकेट खेलना,
तो कभी दिन भर पूरे गांव में घूमना,
एक बल्ले का मालिक होता था ,
तो एक की खुद की बाल होती थी,
स्कूल से ही शाम के खेलने के प्लानिंग हो जाती थी,
बस बस छोटी सी चीजों में बड़े खुश थे हम,
ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन, (कविता जारी अगले पैरे में देखिए)

कभी रोना चीखना चिल्लाना, तो कभी होती थी तमाम शरारतें,
ना कोई जिम्मेदारी थी तब, ना थी इतनी बड़ी हसरतें,
कुछ ना मिले तो बस रो देते थे,
और कुछ मिल गया तो खुशी से झूम उठते थे,
ना जाने कब इतने बड़े हो गये हम,
ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन,
कभी आपस हर चीज के लिए लड़ लेते थे,
और कभी एक छोटी सी टॉफी के भी आपस में हिस्से होते थे,
तब नहीं थे स्मार्ट फोन,
हमें सुलाने के लिए दादी के वो ही पुराने किस्से होते थे,
बेशक़ संसाधन कम थे, पर हमेसा खुश रहता था ये मन,
ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन, (कविता जारी अगले पैरे में देखिए)

दिवाली में पटाखे, फुलझड़ी जलाने,
और होली में रंग, पिचकारी की मस्ती छायी रहती थी,
जब जाते थे नानी के घर , एक अलग सी रौनक़ छायी रहती थी,
उसी समय लड़ना उसी समय झगड़ना,
और फिर उसी समय बंध जाते थे दोस्ती के प्यारे से बंधन,
ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन,
आज भी याद आने पर आँखें एकदम से भर आती हैं,
वो दिन तो चले गये, अब यादें ही बस बाकी हैं,
पापा के आने पर नये कपड़े, नये खोलोने का बड़ा इंतजार रहता था,
खूब खुश होते थे, और दिन भर खेलते थे,
जब स्कूल बंद और दिन इतवार रहता था,
ना जाने कहाँ चला गया वो बचपन ,
ना जाने कहाँ चले गये वो बेफिक्री के दिन।
कवि का परिचय
सूरज रावत, मूल निवासी लोहाघाट, चंपावत, उत्तराखंड। वर्तमान में देहरादून में निजी कंपनी में कार्यरत।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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