वृक्षारोपण पखवाड़ा या रस्म अदायगीः सोमवारी लाल सकलानी
विश्व के चार जीव वैज्ञानिक परितंत्र में जंगलों का अपना एक महत्त्व है । यह पर्यावरण से ही संबंधित नहीं, बल्कि हमारे जीवन से संबंधित हैं। हमें जलऊ लकड़ी ( ईंधन), भू जल स्रोत, भू संरक्षण, इमारती लकड़ी, खाद, चारापत्तियां, भोज्य पदार्थ, हरितिमा और ऑक्सीजन उपलब्ध करवाते हैं ।
वनो और वृक्षों का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है और मैं समझता हूं कि भारत वर्ष में वन विभाग का बहुत बड़ा महकमा भी है। उनका अपना नियम और कानून है। कार्यप्रणाली है। उनका कार्य करने का तरीका है। लगभग पांच दशक से अधिक समय से देख रहा हूं कि हर वर्ष जुलाई के महीने में वृक्षारोपण का कार्यक्रम करवाया जाता है, लेकिन गर्मी में जंगल में आग लगा दी जाती है, या लग जाती है और सारे तथ्य जल करके भस्म हो जाते हैं। यह है हकीकत !
एक सप्ताह से ऊपर समय हो गया है। वर्षा नहीं हुई है, केवल कागजों का पेट भरने के लिए हजारों लाखों वृक्षों का रोपण कार्य हो रहा है। फोटो खिंचवाने वाले हमारे माननीय जनप्रतिनिधि, विभाग एक पौधे के पीछे बीस खड़े नजर आ रहें हैं। बस, दूसरे रोज अखबार पर फोटो और खबर आ गई। हो गया वृक्षारोपण! सरकारी आदेश का पालन हो गया और धरती को जीवन के लिए बचा लिया!
वृक्षारोपण
मैं किसान का बेटा हूं। किसान भी हूं और हर वर्ष दो -चार पेड़ लगाता हूं। उनका संरक्षण करता हूं और आज एक घने जंगल के रूप में मेरा क्षेत्र सुशोभित है। जब तक शिक्षक के रूप मे सरकारी सेवा में रहा, बच्चों से उतने ही पौधे लगाए जितना के पेड़ों का संरक्षण हो जाए । उन पर नाम पट्टीकाएं लगाई। उनको पोषित किया। जब हरा भरा कुंज वहां पर स्थापित हो गया तो कुछ असामाजिक तत्वों के द्वारा उसको नष्ट करने का भी प्रयास किया गया। इसके लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहा और मेरे कार्य में जन समर्थन भी प्राप्त हुआ। हमने केवल वृक्ष ही नही लगाये, बल्कि वृक्षों को बचाया भी है।
व्यापक पैमाने में 80 के दशक में जब जंगलों का कटान हो रहा था। कोयला के लिए भट्टे लग रहे थे तो बाल्यावस्था में उस समय भी प्रसिद्ध पर्यावरणविदों के साथ सहयोग किया। उसका परिणाम यह हुआ कि आज अनेक क्षेत्रों में हरियाली और खुशहाली दिखाई देती है। चाहे वह वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी का स्मृति वन हो या कालावन -तेगना के जंगल हों या सरकंडा की वादियों मे अनेक वृक्ष युक्त सघन वन हों या सकलाना का वृहद निजी वन क्षेत्र हो।
वन संरक्षण के लिए ग्राम पंचायत जड़धार गांव एक मिशाल के रूप में मानी जानी चाहिए । जिन्होंने जंगल में वृक्षारोपण के साथ-साथ ,जंगल का संरक्षण किया। उसको बचाया। श्री विजय जड़ धारी, श्री रघुभाई जड़धारी आदि उनमें से एक हैं। लोगों को कहना है कि जंगल में आग लग जाने से वृक्ष जल गए, लेकिन जड़धार गांव के ऊपर विस्तृत भू-भाग में फैला हुआ जंगल आज भी शाश्वत है। यह वहां के लोगों की कार्यप्रणाली और उनकी आस्था के कारण बचा हुआ है।
सरकारी जंगल जहां -जहां है वह क्षेत्र विरल वृक्ष युक्त या कहीं कहीं विहीन हैं। निजी जंगल फलते -फूलते जा रहे हैं। इसमें केवल वन विभाग के कर्मचारी, अधिकारियों का ही दोष नहीं है बल्कि जनमानस जिसके लिए उत्तरदाई है। अपना पेड़ अपना जंगल बचाएगा, लेकिन सरकारी जंगल, सरकारी वन ,बेरहमी से नष्ट करेगा! यह लोगों की एक मनोभावना है। मनोवृति है। बिना जन -जागरूकता की इस भावना को नहीं मिटाया जा सकता। अनेकों बुद्धिजीवी और पर्यावरण भी इस भावनाओं को मिटाने के लिए भरसक कार्य कर रहे हैं।
वन विभाग यदि पर्यावरणविद और सामाजिक व्यक्तियों का सहयोग ले तो उनके जंगल बचे रह सकते हैं। भले ही उनके ऐशो -आराम, उनकी सुविधाओं में कमी हो जाए। पेड़ लगाना ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि पेड़ को बचाना, उसका संरक्षण करना और उसको भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखना बड़ी जिम्मेदारी है।
पृथ्वी दिवस से लेकर विश्व पर्यावरण दिवस तक अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। जुलाई के महीने में श्री देव सुमन जी के नाम पर भी वृक्षारोपण कार्यक्रम गतिशील है। हर साल गतिमान रहता है। बैंक, जंगलात, अस्पताल, विद्यालय, स्थानीय निकाय, जनप्रतिनिधि, नगर पालिका परिषद आदि सब वृक्ष लगाने पर लगे हैं, लेकिन यह वृक्ष है कहां ? दशकों से वृक्ष लग रहे हैं, लेकिन उनकी मॉनिटरिंग करने वाला कोई नहीं है। यदि प्रत्येक वृक्ष का हिसाब मांगा जाए तो इस कार्य में प्रगति हो सकती है ।
लंबे चौड़े लेख लिखने से बजाएं छोटा सा सारगर्भित लेख लिखना ज्यादा उपयोगी है। सौ पेड़ों को लगाने के बजाय दस पेड़ लगाए जाएं, उनका संरक्षण किया जाए, उनको ढंग से पनपा दिया जाए तो यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। आज वृक्षारोपण के नाम में जंगलात की भूमि पर अवैध कब्जा करने का कार्य गतिमान है। वन विभाग की आंखों पर पट्टी बंधी हुई है। वे मूक दर्शक बने रहते हैं। सरकार में जिन लोगों की पकड़ है। विभागीय कर्मचारी अधिकारी इन से डरते हैं या इनकी संत गांठ है। नेता जन को वोट की चिंता है। इसलिए सब की आंखें मूंदी हुई हैं। वृक्षारोपण कार्यक्रम वृक्षारोपण भी कुछ वर्षों से माफिया की भेंट चढ़ गया। तथाकथित पर्यावरण प्रेमी खाले- नाले की जमीन, बंजर भूमि ,जहां भी देख लिया वहां पर वृक्षारोपण के नाम पर कब्जा कर रहें हैं।
कहीं भी इर्द गिर्द दो चार पेड़ लगाएंगे, लोगों के गोचर, पनघट, मरघट आदि पर कब्जा करेंगे और वर्ष, दो चार वर्ष में अपना मालिकाना हक घोषित करेंगे। बाद में सरकार के साथ लड़ाई लड़के या शासन सत्ता में अपने लोगों के द्वारा उस भूमि को अपने नाम करा लेंगे और करोड़ों की जमीन हथिया लेंगे। यह होता आया है। तथाकथित जनप्रतिनिधियों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है या इनकी दबंगई चलती है। वन विभाग के सरकारी कर्मचारी और अधिकारी इनके सम्मुख केवल नौकरी पकाने वाले निरीह नजर आते हैं। इस प्रकार से खड़े रहते हैं, जैसे निरीह किसान अपनी लहराती हुई फसल को मवेशियों के द्वारा चुनते हुए देखता है, लेकिन कर कुछ नहीं पाता है। सारा तंत्र ही जब भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाए तो अपेक्षा भी किससे की जाए, यह यक्ष प्रश्न है !
आजादी के आठ दशक बाद भी हिंदुस्तान का आधा कार्य मात्र कागजों पर चल रहा है। तुलनात्मक रूप से देखा जाए हिंदुस्तान की तरक्की असामाजिक तत्त्वों के कारण बाधित हुई है। भ्रष्टाचार का बोलबाला बढा है और माफियाओं का राज आज भी बरकरार है। भले ही उसका रूप परिवर्तित है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारी करनी और कथनी में अंतर ना हो। यदि हमें हिंदुस्तान को वास्तव में महान बनाना है। अपने देश और प्रदेश की गरिमा का ध्यान रखना है। अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाना है। प्राणी मात्र की खुशी के लिए प्रकृति को बचाना है, तो हमें काफी कोशिश करनी होगी और बिना स्वार्थ और पक्षपात के हमें अपनी आवाज भी बुलंद करनी होगी।
वृक्षारोपण कार्यक्रम हो या कोई अन्य कार्यक्रम। चाहे भले ही उसकी गति धीमी हो, लेकिन व्यवस्था स्थाई हो। उसका अनुश्रवण हो। इस प्रकार का नियम और कानून बनाया जाएं कि जो सभी लोगों के लिए बाध्यकारी सिद्ध हो।
कानून का डर होना भी जरूरी है
यदि कानून ही असामाजिक तत्वों से डरने लग जाए तो फिर जीवन की कल्पना करना भी दुश्वार है और इससे व्यक्ति ,समाज और राष्ट्र का कदापि भला नहीं हो सकता है। इसलिए पर्यावरणविद, बुद्धिजीवियों, किसानों, रचना धर्मियों, जनप्रतिनिधियों, राजनेताओं और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया को इस प्रकार के समसामयिक तथ्यों पर अपनी पैनी नजर रखनी लाजमी है। वरना त्यौहार तो हम आदिकाल से मनाते जा रहे हैं। इस कार्यक्रम को भी एक त्योहार के रूप में लें। उत्सव मना लें और फिर साल भर तक उस कार्यक्रम को भूल जाएं। इसी को एक लक्ष्य मान लें।
लेखक का परिचय
कवि एवं साहित्यकार सोमवारी लाल सकलानी, निशांत सेवानिवृत शिक्षक हैं। वह नगर पालिका परिषद चंबा के स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर हैं। वर्तमान में वह सुमन कॉलोनी चंबा टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में रहते हैं। वह वर्तमान के ज्वलंत विषयों पर कविता, लेख आदि के जरिये लोगों को जागरूक करते रहते हैं।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।