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December 19, 2024

आज के दिन हुआ था पेशावर विद्रोह, जानिए इसके नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में, सीपीएम ने की विचार गोष्ठी

23 अप्रेल 1930 को गढवाली सैनिकों ने पेशावर के किस्सा खानी बाजार में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। ये विद्रोह वीर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में किया गया था।

23 अप्रेल 1930 को गढवाली सैनिकों ने पेशावर के किस्सा खानी बाजार में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। ये विद्रोह वीर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में किया गया था। आगे चलकर इन सैनिकों को मुसीबतें उठानी पड़ी, लेकिन उन्होंने गढ़वाल का मस्तक ऊंचा कर दिया था। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में
चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। चन्द्रसिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे जो मुरादाबाद में रहते थे। काफी समय पहले ही वे गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहाँ के थोकदारों की सेवा करने लगे थे। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। वह एक अनपढ़ किसान थे। इसी कारण चन्द्र सिंह को भी वो शिक्षित नहीं कर सके। चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

सेना में हुए भर्ती
3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फरवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गए। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

हवलदार से बनाया सैनिक
प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। उच्च अधिकारियों की ओर से इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

दोबारा की गई तरक्की
कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी। वहाँ से वापस आने के बाद इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता। इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज्बा पैदा हो गया। अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

गोली चलाने से किया मना
उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 23 अप्रैल 1930 को इन्हें पेशावर भेज दिया गया। और हुक्म दिये की आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। इन्होंने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया। इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाली बटेलियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया। इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

सैनिकों पर चला मुकदमा, गढ़वाली की वर्दी को काटकर किया अलग
अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल की ओर से की गयी। उन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

11 साल के कारावास के बाद किया आजाद
1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। पर इनकी सजा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया। साथ ही गढ़वाल में उनका प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। गांधी जी इनके बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

कम्युनिस्टों के सहयोग से किया गढ़वाल में प्रवेश
22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1967 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

 

सीपीएम ने की विचार गोष्ठी, दी श्रद्धांजलि
मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी राज्य गांधी ग्राम कांवली रोड स्थत राज्य कार्यालय में पेशावर विद्रोह के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को श्रधांजलि दे कर विचार गोष्ठी की इस अवसर पर वक्ताओं वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की। साथ ही उनके जीवन पर प्रकाश डाला। इस मौके पर मुख्य रूप से पार्टी के प्रांतीय सचिव राजेंद्र सिंह नेगी, जिला सचिव राजेंड पुरोहित, सीटू के प्रदेश महामन्त्री लेखराज, एसएफआई के प्रांतीय महामन्त्री हिमांशु चौहान, शैलेन्द्र परमार आदि ने विचार व्यक्त किये। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

 

सीपीएम सदस्य अनंत आकाश की कलम से
सीपीएम से जुड़े देहरादून निवासी अनंत आकाश के मुताबिक, 23 अप्रैल 021 को पेशावर विद्रोह की वर्षगांठ का ऐतिहासिक दिन है, जो देशभक्ति व साम्प्रदायिक एकता की ऐतिहासिक मिशाल का दिन है। इस दिन यानि 23 अप्रेल 1930 को गढवाली सैनिकों ने पेशावर के किस्सा खानी बाजार में वीर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। आगे चलकर इन सैनिकों को इस नाफरमानी की भारी कीमत चुकानी पड़ी, किन्तु इन्होंने गढवाल का सर दुनिया के सामने ऊंचा कर दिया है। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

आज भी पेशावर विद्रोह के सैनिकों न केवल हमारे देश में, बल्कि पाकिस्तान तथा उससे जुडे क्षेत्रों में बडे़ ही आदर से याद किया जाता है। इतिहास में पेशावर विद्रोह महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इस घटना ने अंग्रेजी हुकूमत की चूले हिलाकर रख दी। लाख कोशिश करने के बाद भी वे साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दू मुस्लिम को विभाजित करने में सफल नहीं हो पाये। (खबर जारी, अगले पैरे में देखिए)

कडी सजा पाने के बाद पेशावर बिद्रोह के सैनिकों ने आजादी के बाद नये भारत के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया। चन्द्र सिंह गढवाली पहले से महात्मा गांधी व कम्युनिस्टों के सम्पर्क में थे ,जिसकी प्रणति पेशावर विद्रोह के रूप में परलक्षित हुई थी। आजादी के बाद उन्होंने अपना कार्य क्षेत्र उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलो को चुना था। जहाँ उन्होंने यहां की जनता के जनमुद्दों को लेकर अनेक आन्दोलन किये। वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे तथा अक्टूबर 1979 में वे इस दुनिया को अलविदा कहा।

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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।

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