जानिए पौड़ी जिले के प्रमुख शहर और ऐतिहासिक स्थलों के बारे में
उत्तराखंड में पौड़ी जिले में प्रमुख शहर और ऐतिहासिक स्थल अपने में अद्भुत सुंदरता संजोए हुए हैं। वहीं, इन स्थानों का इतिहास भी रहा है। जहां पर्यटन नगरी लैंसडौन अपने सुंदरता के लिए विख्यात है, वहीं, कर्णवाश्रम इतिहास की घटनाओं को याद दिलाता है। दुगड्डा स्वतंत्रता संग्राम सैनानी चंद्रशेखर आजाद की कर्मभूमि भी रहा। ऐसे स्थलों और इनकी एतिहासिकता के बारे में यहां विस्तार से बताने जा रहे हैं।
कण्व आश्रम जो कभी था भारत का प्रख्यात विश्वविद्यालय
कोटद्वार से 14 किलोमीटर के अन्तर पर यह आश्रम अवस्थित है। शिवालिक पर्वत श्रृंखला के पाद प्रदेश में स्थित कण्व आश्रम वह पुराण प्रसिद्ध स्थल है। जहाँ किसी समय भारत का प्रख्यात
विश्वविद्यालय स्थित था। यहाँ शिक्षा प्राप्ति के लिए उत्तराखण्ड के कोने-कोने से ही नहीं, अपितु देश के सुदूरवर्ती प्रान्तों से भी सहस्त्रों विद्या प्रेमी ज्ञान प्राप्त करने आते थे। यहाँ की धरती जहाँ एक ओर
त्याग, पराक्रम, स्वाभिमान और प्रणय की कथा-कहानियों से ओत-प्रोत हैं। वहीं यहाँ के आश्रम और मेले अपने समृद्ध परम्परा के लिए प्रसिद्ध हैं।
वैदिक साहित्य में भी है उल्लेख
पुराणों के रचना काल में कण्व आश्रम का गौरव उन्नति के शिखर पर था। यही कारण है कि वेद, पुराण और ब्राहमण ग्रन्थों से लेकर महाभारत तक समस्त वैदिक सहित्य में इसका आदरपूर्ण उल्लेख किया गया है। हिमालय के विभिन्न तीर्थों को जाने वाले प्राचीन यात्रा पथ पर स्थित होने तथा शकुन्तला के शैशव और यौवन को क्रोडास्थलो होने के कारण कण्व आश्रम विशेष आकर्षण का केंन्द्र बना।
महर्षि कण्व ने रखी थी नींव
इसवी पूर्व पाँचवा शताब्दी में नालन्दा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों की स्थापना से कई सौ वर्ष पूर्व महर्षि कण्व ने मालिनी के रमणीक तट पर आश्रम की स्थापना कर कण्व आश्रम की नींव रखी थी। बारह एकड़ भू क्षेत्र में फैले इस विशाल आश्रम में वैयक्तिक शिक्षा का प्रचार था। प्रत्येक आचार्य के अधीन पन्द्रह या बीस विद्यार्थी होते थे। नालन्दा या तक्षशिला की भाँति कण्व आश्रम में शिक्षा दीक्षा का कार्य पक्के भवनों में नहीं अपितु पर्णकुटीर और वृक्षों को छाया में बैठकर किया जाता था। सभी विषयों के विद्वान आचार्य यहाँ निवास करते थे। व्याकरण, छंद, ज्योतिष, शिक्षा और कल्प वेद के छ: अंगों के विद्वान, पदार्थ, शुभाशुभ, कर्म, सत्व, रज, तम आदि गुणों की पहचान करने वाले ज्ञाता और पशु-पक्षियों की बोलियाँ समझने वाले विद्वान इस आश्रम की शोभा बढ़ाते थे।
हिंदुओं का प्रसिद्ध तीर्थ
विश्वविद्यालय के अतिरिक्त कण्व आश्रम हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थ और शिल्पकारों का आश्रय स्थल भी रहा है। मानसरोवर तक फैले हिमालय के विभिन्न तीर्थ स्थलों का यात्रा पथ यहीं से होकर गुजरता था। बसंत पंचमी के दिन से यहाँ प्रत्येक वर्ष तीन दिनों तक बसन्तोत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर गढ़वाल के अतिरिक्त पड़ोसी जनपदों के हजारों श्रद्धालु कण्व आश्रम आकर शकुन्तला, दुष्यन्त, भरत और महर्षि कण्व को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य के अतिरिक्त पर्यटकों के लिए यहाँ देखने के लिए कई मन्दिर, आश्रम और एक मग विहार भी है।
लैंसडौन जो है गढ़वाल राइफल्स की जन्मस्थली
गढ़वाल राइफल्स की यह जन्मस्थली लैंसडौन कोटद्वार से 40 किलोमीटर तथा पौड़ी मुख्यालय से 102 किलोमीटर दूरी पर है। यह सागरतट से 6105 फीट ऊँचाई पर स्थित है। प्राकृतिक सुन्दरता के कारण यह नगर पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। यहाँ प्रकृति का लुभावना वातावरण सैलानियों को मंत्रमुग्ध कर देता है। लैंसडाँन को स्थापना 1887 में की गयी थी। इससे पूर्व यहाँ भयंकर जंगल था। तत्कालीन वायसराव लैंसडाँन के नाम पर कालो डांडा का नाम लैंसडाँन पड़ा। छावनी की स्थापना और 1897 में नजीबाबाद से कोटद्वार रेलवे स्टेशन बन जाने से इस क्षेत्र का विकास द्रुत गति से हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व ही यहाँ गढ़वाली-गोरखा बटालियनों की स्थापना हो गयी थी। स्थापना वर्ष से ही बैरक निर्माण, गिरजाघर, डाकबंगला, स्कूल व कार्यालय आदि भी खोले गये।
वीरों का इतिहास पुराना
मई 1887 में लोफ्टिनेन्ट कर्नल मेरविंग के नेतृत्व में गढ़वाली राइफल्स की स्थापना अल्मोड़ा में हुई। छ: कम्पनी गढ़वाली सैनिकों व दो कम्पनी में गोरखा को सम्मिलित कर नवम्बर 1887 में इसे
लैंसडाँन भेज दिया गया। गढ़वाली वीरों का इतिहास तो इससे भी पुराना है। गढ़वाल की भूमि में जन्मे बलभद्रसिंह 1847 में सैनिक के रूप में भर्ती हुए। 1878 में वीरता व कर्त्तनिष्ठता के लिए आर्डर ऑफ मेरिट’ से सम्मानित किये गये। 1887 से गढ़वाल राइफल्स की स्थापना के बाद गढ़वाली सैनिकों की पहचान सेनानियों के रूप में होने लगी।
प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों ने अपनी वीरता का परिचय देकर गढ़वालवासियों के प्रति सम्मान पैदा कर दिया। विक्टोरिया क्रास प्राप्त करने वाले सूबेदार दरबान सिंह नेगी और गब्बर सिंह इसी घाटी में पैदा हुए। रेजीमेण्ट अपने वीर सैनिकों के कारण इतिहास के पृष्ठों में जहाँ स्वर्ण अक्षरों में अपना नाम अंकित करवा चुकी है, वहीं उसी के अनुरूप आज भी वह वीर सैनिकों के कारण बुलन्द हाँसलें, वीरता प्रदर्शन व देश रक्षा के कार्य में मुस्तैदी से संलग्न है।
पैदल यात्रा का अलग ही आनंद
लैंसडौन में माइका के चमचमाते स्लेटी पत्थरों से निर्मित तिकोनी छत वाले घरों और लकड़ी वाले घरों और लकड़ी के मकानों की भरमार है। अंग्रेजों ने इस शहर को खूबसूरत पैदल परिपथों से संवारा है। टिप इन टॉप, कैथोलिक चर्च, कालेश्वर मन्दिर, जहरीखाल आदि सभी दर्शनीय स्थलों की पैदल यात्रा मनोरंजक और प्रकृति निरीक्षण का अच्छा माध्यम है।
युद्ध स्मारक दिलाता है बलिदानियों की याद
परेड ग्राउण्ड के उत्तरी छोर पर आकाश की ऊँचाईयाँ छूता युद्ध स्मारक प्रथम विश्व युद्ध से लेकर अब तक विभिन्न मोर्चों पर शहीद सैनिकों के शौर्य और बलिदान की याद दिलाता है। युद्ध स्मारक की आदमकद कांस्य प्रतिमा में 1914 के गढ़वाली सैनिकों की वेशभूषा और वीरता की झलक मिलती है। सैन्य परिवेश से जुड़ी एक और दर्शनीय जगह है गढ़वाली मेस। बहुरंगी विशिष्टताओं से भरपूर मेस-संग्रहालय में रेजीमेंट के सैनिकों को भेंट किये गये युद्ध एवं शिकार की ट्राफियाँ प्रदर्शित की गई है। युद्ध के दौरान शत्रु सेना से छीने गये हथियार व अन्य सामग्री भी यहाँ प्रदर्शित की गयी है। इनमें जर्मनी व चीन के झंडे एवं तुर्की की फील्डगन शामिल है। रेजीमेन्ट के सैन्य अधिकारियों द्वारा शिकार के दौरान मारे गये विभिन्न वन्य प्राणियों की खालों को सजीवता प्रदान करते हुए मेस में प्रदर्शित किया गया है। दीवारों पर बारहसिंघा, बायसन, मोरखोर आदि जानवरों के सींग सजाये गये
है।
देवलगढ़
श्रीनगर से खिरसू मार्ग पर लगभग 16 किलोमीटर दूर सड़क के बायीं और बधाणी गाँव है, यहाँ से देवलगढ़ के मध्यकालीन प्राचीन मन्दिर समूह की पहाड़ी पर पहुँचने के लिए लगभग दो किलोमीटर पैदल चलना पड़ता हैं। मन्दिरों के प्रांगण से पर्वतों के पीछे हिमाच्छादित पर्वत शिखर और उनसे भी ऊँची चौखम्भा चोटी दिखायी देती है। यहाँ पहुँचकर आश्चर्य होता है कि किस साहसी व्यक्ति ने इस दुर्गम प्रदेश में इस पहाड़ी पर पहुँचकर इसके अलौकिक वातावरण में इन मन्दिरों के निर्माण की कल्पना की होगी। कहते हैं देवलगढ़, कांगड़ा के किसी राजा ने बसाया था। उसने यहाँ गौरी देवी और कंसमर्दिनी की स्थापना की थी। उसी देवल मंदिर के नाम पर इस स्थान का नाम देवलगढ़
पड़ा। इतिहासविदों के अनुसार ये मंदिर नौवीं – चौदहवीं शताब्दी के मध्य के हैं। 1512 में गढ़वाल के राजा अजयपाल ने चाँदपुर के किले से अपनी राजधानी देवलगढ़ में बसाई और यहाँ सत्यनाथ, कालभैरव और राजराजेश्वरी के श्रीयंत्र की स्थापना की।
गौरा मंदिर की परिधि में पहुँचने से पहले मार्ग में दो छोटे चौकोर देवस्थल पड़ते हैं। एक सोम की मंडप के नाम से प्रसिद्ध है। सोम की मंडप की प्रस्तर पट्टियों पर अलंकारिक अभिप्राय और कुटिल लिपि के अक्षर उत्कीर्ण हैं। यह दो मंजिला है। दूसरा देवस्थान पैदल मार्ग के किनारे है। यह दो मंजिला है। यह मंदिर गाय चराते हुए कृष्ण का है। चौकोर लम्बी शिलाओं से बने ये मंदिर आज खण्डहर अवस्था में हैं। गुम्बद के स्थान पर मंदिरों की छतें पिरामिड के आकार में किन्हीं लम्बे पत्थरों से छापी गयी है, जिनके शीर्ष भाग पर एक गोलाकार पत्थर का शिखर दिया गया है।
चबूतरे के ऊपर गौरा देवी का विशाल मन्दिर है। प्रवेश द्वारों की चौखटें और देहरी लम्बी पत्थर-पट्टियों की बनी हैं, जिन पर लोक शैली में बिल्ली, तोता और घुड़सवारों की आकृतियाँ हैं। गौरा मंदिर के बायीं ओर थोड़ा नीचे लक्ष्मीनारायण का छोटा सा मंदिर है। मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मीनारायण की एक बड़ी कलात्मक प्रतिमा काले पत्थर की है। गढ़वाल राजाओं के आश्रम में इन मध्यकालीन मंदिरों का वैभव अवश्य चरमोत्कर्ष पर रहा होगा, इसका अनुमान आज भी लगाया जा सकता है।
स्वतंत्रता संग्राम में दुगड्डा का योगदान
परगना तल्ला सलाण में कोटद्वार से 16 किलोमीटर पौड़ी मार्ग पर दुगड्डा बसा है। यहाँ पर दो बड़ी गाड़ों का सगम होने के कारण यह नाम पड़ा। गढ़वाल के आयात-निर्यात की यह प्रधान मंडी है। दुगड्डा नगर का स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस ऐतिहासिक नगर के समीपवर्ती ग्राम नाथीपुर के निवासी भवानीसिंह रावत गढ़वाल के इकलौते ऐसे महान क्रांतिकारी योद्धा थे, जिन्हें अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद का सान्निध्य प्राप्त था।
रावत की प्रेरणा से ही आजाद सन् 1930 में दुगड्डा आँचल में अपने साथियों के साथ शस्त्र प्रशिक्षण के लिए आये थे। जाते समय उन्होंने जो अपनी यादगार निशानेबाजी का प्रदर्शन किया वह वृक्ष आज भी यहाँ है। प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स में सराहनीय कार्य करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने भवानी सिंह को दुगड्डा से तीन किलोमीटर दूर वीरान जंगल में बीस एकड़ भूमि पुरस्कार के रूप में दी थी। भवानी सिंह रावत
के पिता श्रीनाथ सिंह के नाम पर ही इस स्थान का नाम नाथोपर रखा गया।
श्रीनगर गढ़वाल
श्रीनगर में अलकनन्दा नदी की मध्य धार में एक विशाल पवित्र शिला पर ‘श्री’ एक प्राकृतिक यंत्र चिह्न अंकित है । इसी ‘यंत्र श्री ‘ के माध्यम से इन नगर का नामकरण श्रीनगर हुआ ।हरिद्वार- बदरीनाथ मार्ग पर श्रीनगर हरिद्वार से 132 और ऋषिकेश से 108 किलोमीटर दूर अलकनन्दा के बाये तट पर एक विस्तृत घाटी में बसा हुआ है।
कई बार बसा और उजड़ा श्रीनगर गढ़वाल
गढ़वाल की पुरानी राजधानी चाँदपुर गढ़ी थी, वहाँ से इसे देवलगढ़ लाया गया तत्पश्चात् सन् 1500 से 1803 तक पंवार वंशी राजाओं की राजधानी श्रीनगर रही। सिंगोली की सन्धि 4 मार्च 1816 के पश्चात् आधा गढ़वाल अंग्रेजों को युद्ध व्यय के रूप में सौंप दिया गया। यहाँ 1840 तक ब्रिटिश गढ़वाल का मुख्यालय भी रहा। सन् 1894 में गौहना ताल के टूटने से ओर उसकी भयंकर बाढ़ से यह नगर पूर्ण रूप से नष्ट हो गया था। दिल्ली के समान यह नगर कई बार बसा और कई बार उजड़ा है। गढ़वाल का केन्द्रीय स्थान होने से श्रीनगर सभी प्रमुख स्थानों से मोटर मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है।
शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान
यहाँ पर ऋषिकेश, कोटद्वार, टिहरी और बदरीनाथ से आने वाले मार्ग मिलते हैं। श्रीनगर के उत्तर में अलकनन्दा नदी प्रवाहित होती है। दक्षिण में घाटी की सीमा को अग्नि पर्वत ने सीमित कर दिया है। इस पर्वत के शिखर पर पुराण प्रसिद्ध अष्टावक्र मन्दिर है। पूर्व और पश्चिम में यह घाटी बिल्कुल संकीर्ण हो गई है। पूर्व में घसिया महादेव और श्रीकोट पश्चिम में कीर्तिनगर इस नगरी की सीमा को सीमित करते हैं। श्रीनगर में शिक्षा की विशेष उन्नति हुई है। 1962 में यहाँ डिग्री कॉलेज की स्थापना हुई थी तथा इसमें 1972 से स्नातकोत्तर कक्षाओं को प्रारम्भ किया गया था। यहाँ 1973 में गढ़वाल विश्वविद्यालय का केन्द्रीय कार्यालय स्थापित किया गया, जो 1977 में कुछ कॉलेजों को संघटक महाविद्यालयों के रूप में अधिग्रहित करके आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में भी परिणत हुआ। श्रीनगर में धार्मिक एकता का भी सुन्दर सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है। हिन्दुओं का तो यह प्राचीन तीर्थ है ही, यहाँ सिखों का गुरूद्वारा है, इसाइयों का चर्च है तथा मुसलमानों की मस्जिद है।
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लेखक का परिचय
लेखक देवकी नंदन पांडे जाने माने इतिहासकार हैं। वह देहरादून में टैगोर कालोनी में रहते हैं। उनकी इतिहास से संबंधित जानकारी की करीब 17 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कुमाऊं के निवासी पांडे लंबे समय से देहरादून में रह रहे हैं।