जिससे बनती है कैंसर की दवा, उसको नाश्ते और भोजन में उड़ा रहे लंगूर, जानिए इस वनस्पति के औषधीय गुणः पंकज कुशवाल
यूं तो समुद्रतल से छह से दस हजार फीट की उंचाई वाले इलाकों में बारह महीने ही ज्यादातर पेड़ों की प्रजातियां हरी भरी रहती है, लेकिन इन दिनों वासंती ऋतु में जंगल भी वासंती बयार से अछूते नहीं है। सृजन के इस माहौल में पेड़ों पर नई कलियां खिल रही हैं तो फलदार वृक्ष रंग बिरंगे फूलों से सराबोर हैं। इस वासंती माहौल में औषधीय गुणों की खान ‘थुनेर’ पेड़ की रंगत गायब है। अपने कैंसर अवरोधी गुणों से भरपूर थुनेर पेड़ पर लंगूरों की काली छाया पड़ गई है। जंगलों में थुनेर के पेड़ों की हालत देखकर सहसा यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि बारह महीने हरा भरा रहने वाला यह पेड़ बिना पत्तियों और छाल के एक लाश सा लग रहा है।
ये है खासियत
थुनेर जिसका वानस्पति नाम टैक्सस वेलेचिनिया और अंग्रेजी नाम हिमालयन येव है। अपनी पत्तियों और छाल में कैंसर अवरोधी गुण समेटे हुए होता है। चीड़ की तरह नुकीली पत्तियों वाला यह पेड़ औसतन पंद्रह से बीस फीट ही उंचा होता है। समुद्रतल से 7 से 12 हजार फीट तक की उंचाई में मिलने वाला यह पेड़ जहां कैंसर अवरोधी गुणों के लिए प्रसिद्ध है, वहीं, हिमालयी क्षेत्र में लोहार का काम करने वाले स्थानीय लोहारों के लिए उच्च गुणवत्ता के लकड़ी के कोयलों के लिए भी खूब चर्चित है।
पत्तियों और खाल से बनाते हैं चाय
इस पेड़ की पत्तियों और खाल को स्थानीय लोग चाय बनाने के लिए भी उपयोग में लाते हैं। इन दिनों इस पेड़ पर लंगूरों की कुदृष्टि पड़ गई है। जंगलों में वासंती माहौल में जंगली फलों के पेड़ों का यह फ्लवारिंग सीजन है। लिहाजा जंगली फलों की कमी के चलते लंगूर की फौज एक ओर जहां आबादी वाले इलाकों में आकर फलदार पेड़ों में लगे फूलों को सफाचट कर रही है, वहीं जंगल में साल भर हरा भरा रहने वाले थुनेर को भी भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। पत्तियों को सफाचट करने के साथ ही पेड़ की खाल को भी पूरी तरह निकालकर पेड़ को नंगा कर रहे हैं। इससे थुनेर के पेड़ों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है।
नंगे पेड़ देख हुई हैरानी
जब मैं स्वयं रविवार सुबह एक ट्रैकिंग के लिए उत्तरकाशी जिले के रैथल से दयारा ट्रैक के लिए निकला तो थुनेर के नंगे पेड़ों को देखकर एक बारगी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। इन दिनों जंगल बुरांश के लाल फूलों के साथ ही विभिन्न जंगली फलदार पेड़ों में खिले रंग बिरंगे फूलों से सराबोर है। सृजन की इस ऋतु में पेड़ों पर नई चमक साफ दिखती है लेकिन थुनेर के पेड़ों पर लंगूरों का आतंक इस पूरे रंग बिरंगे माहौल में खलल डालता है। बेहद क्रूर ढंग से पेड़ों की छाल को निकालकर पेड़ों से पत्तियों को पूरी तरह से गायब कर टहनियों को भारी नुकसान पहुंचा रहे लंगूर इस बेहद कीमती और औषधीय गुणों से भरपूर पेड़ के दुश्मन बने हुए हैं।
वन विभाग अनजान
वहीं, इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्जरवेशन ऑफ नेचर की ओर से विलुप्ति की कगार की श्रेणी में डाले गये इस महत्वपूर्ण थुनेर के पेड़ पर छाए इस संकट से वन विभाग फिलहाल इस पूरे घटनाक्रम से अनजान बना हुआ है। उत्तरकाशी वन प्रभाग के डीएफओ दीपचंद्र आर्य इस मामले में कहते हैं कि जंगली जानवरों के व्यवहार में यह प्ररिवर्तन होना नया नहीं है। जंगलों में जो भी खाने लायक मिलता है जानवर उसे चट कर जाते हैं। थुनेर में औषधीय गुणों के चलते इसका स्वाद जानवरों को भा जाता है।
बागवान भी आतंकित, सेब, आड़ू के पेड़ों को कर रहे बर्बाद
जंगल में थुनेर के साथ ही लंगूर रैथल गांव में सेब, आडू के पेड़ों के भी दुश्मन बने हुए है। इन दिनों आडू, सेब, खुबानी, नाशपाती समेत अन्य फलदार वृक्षों का फ्लावरिंग सीजन चल रहा है। ऐसे में वासंती बयार में पेड़ों पर अमूमन इन दिनों खूब फूल दिखते हैं, लेकिन ज्यादातर बागीचों में पेड़ों की ध्वस्त टहनियां और गायब फूल इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि लंगूर स्थानीय बागवानों के लिए सबसे बड़े दुश्मन साबित हो रहे हैं। झुंड के झुंड लंगूर एक पूरे बड़े बगीचे को कुछ ही मिनटों में तहस नहस कर देते हैं। वहीं, ग्रामीणों के सामने भी लंगूरों से छुटकारे के लिए कोई विकल्प भी मौजूद नहीं है। वन विभाग से इस संबंध में कई बार गुहार लगाई जा चुकी है, लेकिन वन विभाग कोई कार्यवाही करने को तैयार नहीं दिखता।
लेखक का परिचय
नाम-पंकज कुशवाल
मूल रूप से उत्तरकाशी निवासी हैं। रेडियो, समाचार पत्रों में काम करने का अनुभव के साथ ही वह बाल अधिकारों, बाल सुरक्षा के मुद्दों पर कार्य कर रहे हैं। विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ कार्य करने के साथ ही वह सुदूर क्षेत्रों में मुख्यधारा की मीडिया से छूटे इलाकों में वैकल्पिक मीडिया का युवाओं को प्रशिक्षण व वैकल्पिक मीडिया टूल्स विकसित करने का प्रयास करते हैं। वर्तमान में पत्रकारिता से पेट न पलने के कारण पर्यटन व्यवसाय से जुड़कर रोजी रोटी का इंतजाम कर रहे हैं। वह किसी विचारधारा का बोझ अपने कमजोर कंधों पर नहीं ढोते।
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भानु बंगवाल, देहरादून, उत्तराखंड।